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यदि निमित्तों के होने पर भी यह भाव्यमानता न हो, तो सारे निमित्त स्वयं ही विफल हो जाते हैं । (२५)
राग-द्वेष की तरंगों का जो प्रवाह विद्यमान है, वह भाव्यमानता से निर्मित्त है । इसी से जीव प्रतिभाव में फंसता है। (२६)
सम्मुख स्थित वस्तु / व्यक्ति का प्रतिबिम्ब दर्पण में दिखाई देता है । प्रतिबिम्ब के कारण दर्पण में चित्त के भाव कहाँ बनाते है ? (२७)
इसी प्रकार विषयों से उत्पन्न प्रतिभाव को छोड़कर आत्मा भी केवलज्ञान रूप सुख में स्थिर होनी चाहिए । ( २८ )
यह आत्मा शरीररहित, अकेली, कर्मोदय विहीन, भाव्यमानता से रहित होकर मोक्ष में निवास करे यह इच्छा रहती है । (२९)
परम प्रसन्नता, दुःख और सुख दोनों से भिन्न है । वह निमित्तों से निरपेक्ष है । वह मोक्ष में लभ्य है । वह आत्मस्थिता है । वह अनन्त है । (३०)
दूसरा प्रस्ताव
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