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जिस प्रकार कर्म के उदय से प्राप्त शरीर कर्म से भिन्न है । उसी प्रकार सापेक्ष दृष्टि से संस्कार भी कर्म से पृथक् है । (४९)
मोहनीय कर्म के उदय की अवस्था रूप ममत्व (मूर्छाभाव / आसक्ति) को विद्वानों ने स्वतन्त्र रूप से संस्कार कहा है । (५०)
ममत्व के त्याग का उपदेश जब दिया जाता है, तब संस्कार के नाश करने की प्रेरणा मुख्य होती है । कर्म की बात मुख्य नहीं होती । (५१)
प्रश्न :- संस्कार के नष्ट होने से कर्म का नाश होता है या नहीं ? यदि होता है, तो कर्मों का ही नाश करना चाहिए, उस संस्कार की चिन्ता से क्या ? (५२)
और यदि कर्मों का नाश नहीं होता है, तो संस्कारों का त्याग व्यर्थ है। इस तरह संस्कारों के परित्याग की विचित्र कथा को समाप्त कीजिए । (५३)
उत्तर :- सुनिए, यहाँ संस्कार कार्य रूप कहा गया है, कर्म कारण है। उनकी कार्यकारण भाव जनित भिन्नता के कारण उन दोनों में सर्वथा अभेद (एकत्व) नहीं है । (५४)
प्रथम प्रस्ताव