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इस कलियुग में केवलज्ञान नहीं होता । अतः दुःखों का सम्पूर्ण नाश कब होगा उसका पता नहीं है । इस युग में मुख्य रूप से दुःखों के आने पर चित्त की रक्षा करना ही मुख्य लक्ष्य होना चाहिए । (४३)
चित्त के द्वारा ही जीव सुख दुःख से परिपूर्ण जगत् का अनुभव करता है और अनादि संस्कारों की पुनरावृत्ति करता है । (४४)
अवस्थाभी संस्कार कर्मों के वर
सभी संस्कार कर्मों के वशीभूत है । इसलिए ये आत्मा को किसी शुभ और योग्य अवस्था में स्थिर होने नहीं देते हैं । (४५)
(शंका हो सकती है कि) कर्म और संस्कार यदि भिन्न नहीं है, तो स्वतन्त्र रूप से संस्कारों का विवेचन करना व्यर्थ है । (४६)
के कार्य से युद्ध धावा कचाही
कर्म से ही भावों की उत्पत्ति होती है इसलिए धर्मात्मा व्यक्ति को सच में कर्मोदय के साथ ही युद्ध करना चाहिए । (४७)
जवाब यह है कि जीव पूर्वनिश्चित कर्मों के कारण जिस प्रकार जो जो विचार करता है, उसे ही संस्कार कहते हैं । (४८)
प्रथम प्रस्ताव
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