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स्वयं में विश्वास की कमी दुःख है। विश्वास का तूटना दुःख है । याचना करने पर न मिलना और दान पाते समय तिरस्कार होना दोनों दुःख हैं । (३७)
असुरक्षा का भाव दुःख है । संसार में अकेलापन दुःख है । अनादर दुःख है। दुर्व्यवहार से दु:ख होता है । (३८)
इस प्रकार अगणनीय प्रकारक दुःख विचित्र होता है । साक्षात्, दुर्भाग्यस्वरूप यह दुःख जीव को संसार में घुमाता रहता है । (३९)
असह्य हर हाए दुःख चिनको काटक
आए हुए दुःख चित्तको काँटो की तरह विद्ध करते है। उन से उत्पन्न अन्त:पीड़ा असह्य होती है । (४०)
कर्म का आत्मा में रहना यह दुःखों का मूल कारण है । कर्म के सम्पूर्ण नाश से ही दुःखनाश सम्भव है । (४१)
अनादि से चला आया यह कर्मसमूह कब नष्ट होगा ? कब यह चिरंतन दुःखों का पूर्ण नाश होगा ? (४२)
प्रथम प्रस्ताव