________________ 280 TE विक्रम चकि कन्या के. कथनानुसार वहाँ पर गुप्त होकर छिप गया, कुछ ही देर के बाद राक्षस वहाँ आया, और कन्या से पूछा, " यहाँ मनुष्य की गंध कहाँ से आ रही है ? बताओ यहाँ कौन मनुष्य है.'' कन्या निर्भय होकर बोली, " यहाँ मैं मनुष्यनी हूँ, यदि तुमको मांस की इच्छा हो तो मुझे ही चबा जाओ.". " .'आखीर मनुष्य मेरा क्या करेगा.' ऐसा विचार कर वह राक्षस दण्डको पृथ्वी पर रखकर स्नान आदिसे पवित्र होकर देवपूजामें प्रवृत्त हो गया, अनुकूल अवसर देख विक्रमादित्यने उसके समीपसे दण्ड ले लिया और कहने लगा. "हे राक्षस ! भक्तिपूर्वक देवकी पूजा करों, क्योंकि तुमको मारनेके लिये मैं तुम्हारा काल होकरः आ गया हूँ; यह तुम्हारी अन्तिम देवपूजा है. मैं संमुख आये हुए क्रूर मनुष्य, देव, दानव, या राक्षसको ही मारता हूँ अन्यको नहीं.". यह बात सुनकर राक्षस सोचने लगा, “यह नरवीर कौन है ? जो अभी मेरे सामने भी इस प्रकार बोलनेका साहस कर रहा है ?" यह सब सोचता हुआ वह राक्षस देवपूजन समाप्त करके कहने लगा, "रे मूर्ख ! तुम मेरे आगे इस प्रकार. कटुवचन क्यों बोलते हो? तुमने मेरी शक्तिका परिचय किये बिना ही, सहसा इस प्रकार गर्वयुक्त वाणी बोलने का क्यों साहस किया / क्यों व्यर्थमें कटुवचन बोलकर अपने प्राणोंको धोखेमें डाल रहे हो ?' चुपचाप उल्टे पैर अपने स्थानको चले जाओ. मैंने कितने ही देव, दानव और मनुष्योंको जीता है. तुम मेरे आगे क्या चीज हो?" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak. Trust