________________ 530 विक्रम चरित्र इच्छित स्थान को पहोंच जायगी." कोची के कथनानुसार विधि करने से मत्री पेटी सहित वहां से आकाश मार्ग द्वारा मदनमजरी के निवास स्थान पर पहूँचा. नृपप्रिया मदनमजरी अपने मन के ईष्ठ व्यक्ति मत्री को आया देख कर उठ खडी हुई, और आसन देकर बोली, " हे मंत्रीश्वर ! आज तो आप बहुत दिनों से यहां पधारे है.” मंत्री बोला, “हे प्रिये ! मेरे लिये हमेशा आना संभव नहीं है." रानी बोली, "हे वल्लभ ! आप के वियोग से जलता हुवा मेरा मन बिलकुल आप में आसक्त हो रहा है, और दूर रहने पर भी मैं आप के समीप हुँ, आप के सुख में सुखी और दुःख में दुःखी हूँ, क्यों कि आप के वियोग में जो दिन निकलता है वह अपरिमित है, आप के वियोग में बीतनेवाला मेरा जन्म ही व्यर्थ है." कह कर मदनमजरीने मत्री को स्नान करवाया, और मंत्री को विविध रसवाला स्वादिष्ट भोजन करवाया, पानादि खिलाकर सुंदर शय्या की तैयारी की. कई प्रकार के शृंगारादि से भोग रूपी अमृत के दान से और कर्णप्रिय वचनों से रानी ने मंत्रीश्वर को खुश किया. भागों को भागते हुए रात्रि के चीत जाने पर रानीने मंत्री को कहा, “हे स्वामिन् ! एक क्षण की तरह आज की रात्रि बीत गई है." तब मंत्री बोला, “अब मुझे जलदी ही जाना चाहिये, क्यों कि कदाचित् राजा यहां आ जाये तो हमारी क्या गति होगी?" मत्री के वचन सुन कर रानीने कहा, " आप अपना मन यहां छोड जाए। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust