________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय. संयोजित . 323 वेदगर्भ की आज्ञानुसार वह गोपाल अब बिलकुल मौन रहने लगा. चारों और राजा के जमाई की इससे प्रशंसा होने लगी.. पर प्रिय गुमजरी को अपने प्रिय पति के साथ बात करने की अति उत्कंठा होने लगी. कारण कि वह स्वयं भी तो पंडिता थी अतः वह विद्वान पंडित के साथ वार्तालाप अति शीघ्र करना चाहती थी पर उसे मौन देख वह हताश हो गई. एक दिन प्रिय गुमंजरी स्वरचित एक नवीन ग्रंथ संशोधन के लिए पतिदेव को दे कर प्रार्थना करने लगी, " हे स्वामि ! आप इस पुस्तक का संशोधन करने का कष्ट करें." राजकुमारी के आग्रह से वह पुस्तक उसने लेली और उसमें अपने बड़े बड़े नाखूनों से कई काट-काट कर दी; कई अक्षरों की मात्राओं को मिटा डाला. और कई स्थानों पर अनुस्वार आदि हटा दिये, जिससे वह ग्रंथ कुछ का कुछ अशुद्ध बन गया. राजकुमारीने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक वह ग्रंथ लिया, पर ज्योंही उस अन्थ को उठा खोलकर देखा तो. एकदम उदास हो गयी, वहाँ तो अर्थ का अनर्थ ही हो गया था, और उसके मनमें यह निश्चय हो गया, “यह तो कोई मूर्ख है, क्या वेदगर्भ पंडितजी का शाप सफल हुआ ?" इससे वह मन ही मन बहुत दुःखी हुई. एक दिन राजकुमारीने अपने पति के कुल आदि की / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust