Book Title: Sambodhi 1993 Vol 18
Author(s): J B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 59
________________ SAMBODHI सिसरि सुयंधु तेल्लु लाइज्जइ, कुंकुमि अंगरागु निरु किज्जइ । रुइ आहारि समग्गल वड्ढइ, निडु - वि भोअणु सोसु न कड्ढइ । अच्छा चंदण अच्छा कप्पड, पाय पसारिवि सुव्वइ चप्पड । गिम्हु-वि विविह-वणेहिं समाउलु, वर-हिंदोलय-रास-रमाउलु ॥ पाउस पुत्तय पशिणहिं लब्भइ, मेइसि सव्व जि निय-जलि गभइ । ठाउ ठाउ रेल्लयहि रमाउलु पमुइय-पामर-कय-कोलाहलु ॥ Sanskrit Chāyā : शिशिरे सुगन्धि तैलम् अzते, कुड्कुमेन अङ्गरागः नियमेन क्रियते । रुचिः आहारे अत्यधिंका वर्धते, स्निग्धम् अपि भोजनम् शोषम् न कर्षति । श्लणम् चन्दनम् श्लक्षणम् वस्त्रम्, पादौ प्रसार्य सुप्यते ऊर्ध्वमुखम् । ग्रीष्मः अपि विविध-वनैः समाकुलः, वर-हिन्दोलक-रास-रमणीयः । प्रावृष् पुत्रक पुण्यैः लभ्यते, मेदिनी सर्वा अपि निज-जलैः गर्म्यते । स्थानम् स्थानम् लघु-जलप्रवाहेः रमणीयम्, प्रमुदित-कर्षक-जन-कृत कोलाहलम् ॥ 10. 386, verses 1-3. This passage occurs also in the Manorama-kahā (p. 41). The metre is Vadanaka. At both the places the text is partly defective. It is to be restored as under : सीयल-वाइहिं वज्जइ दंत, संकडियहिं पावियहिं निसंत । सीयालइ सीई(?) दज्जइ-चम्म, छोहे न चडइ जु किज्जइ कम्म । खणि खणि पिज्जइ उन्हउं पाणिउ, नइ-दह-कूव-तलायहं आणिउ । ताविं लूइ दहइ जु देहु, तसु उन्हालह नाउं म लेहु । हेट्ठइ कादउ उप्परि पाणिउ, पइ पइ आवहिं कुहियउ घाणिउ । पाउसु परहउ किट्टउ बारह, जो अणुहरइ कुहिय-चम्मारह ॥ Sanskrit Chāyā : शीतल-वातेन वाद्यते दन्ताः, संकीर्णे प्राप्यते निशान्तः ।। शीतकाले शीतेन दह्यते चर्म, अन्तम् न प्राप्नोति यद् क्रियते कर्म । क्षणे क्षणे पीयते उष्णम् पानीयम, नदी-हद-कूप-तटाकेभ्यः आनीतम् । तापेन उष्णवातेन दहति देहं यः, तस्य उष्णकालस्य नाम म गृणीथ । अधस्तात् कर्दमः उपरि पानीयम्, पदे पदे आयान्ति कुथिताः घ्राणयः । प्रावृड् दूरम् नश्यतु द्वारात्, यः अनुहरति कुथित-चर्मकारम् ॥ 11. p. 396, verse 46 ताविज्जं तह पत्थरह, चह निव्वट्टइ लोहु । तह जीवह तवताविय, किट्टइ कम्मविरोहु ॥ The metre is Dohā :

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