________________
86
SAMBODHI सके । इसे भाषिक अनुप्रयोग में दूसरे प्रकार से वर्णित किया गया है ।
नैयायिकों का अभाव संबंधी मत भाट्ट दार्शिनिकों से मिलता जुलता है । परन्तु नैयायिकों का कुछ बातों में, विशेषकर अभाव के ज्ञान के प्रमाण (स्रोत) को लेकर, भाट्ट मीमांसकों से मतभेद है । भाट्ट मीमांसकों के अनुसार केवल भावात्मक तथ्य ही प्रत्यक्ष द्वारा जाने जाते है न कि अभावात्मक या अनुपस्थित तथ्य । भाट्ट मीमांसक के इस सिद्धान्त से नैयायिक सहमत नहीं है । उसके अनुसार यह ज्ञान कि भूतल पर घट नहीं है इस ज्ञान से कि 'प्याले में दही हैं मिलता जुलता है । तब यह कैसे कहा जा सकता है कि भूतल का ज्ञान प्रत्यक्ष इन्द्रियों द्वारा और घटाभाव का ज्ञान दूसरे स्रोतों (अनुलब्धि) द्वारा संभव है ? इन दोनों का ज्ञान हमें तभी होता है जब हमारी आँखें कार्य करती है ।
ऐसा प्रतीत होता है कि अभाव आकार और रंग से वंचित है, और चूँकि आकार और रंगयुक्त वस्तुएं ही प्रत्यक्ष का विषय है, अतः ये आँखों द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती है । किन्तु उपर्युक्त कथन उपयुक्त नहीं है । उदाहरणार्थ, अणुओं के आकारयुक्त और रंगयुक्त होने पर भी वे प्रत्यक्ष का विषय नहीं है । अभाव भावात्मक बिन्दुपथ की एक योग्यता है । घटाभाव इसके बिन्दु अर्थात् भूतल से विशेषण रूप से सम्बद्ध है । आँखों का संबंध घटाभाव से भूतल के साथ संयोजन के माध्यम से ही संभव
कुमारिल आक्षेप करते है कि किसी भी वस्तु को हम केवल प्रमाण के माध्यम से ही जान सकते हैं । तात्पर्य यह है कि सभी भावात्मक तथ्य भावात्मक प्रमाणों, जैसे प्रत्यक्ष इत्यादि, द्वारा और सभी अभावात्मक तथ्य निषेधात्मक साधनों, जैसे अनुपलब्धि, द्वारा ही जाने जाते हैं ।।
कुमारिल के इस मत से नैयायिक सहमत नहीं है । उसके अनुसार हम अभावात्मक तथ्यों को भी कभी प्रत्यक्ष कभी अनुमान और कभी शब्द द्वारा जानते हैं । उदाहरणार्थ, वर्षा का न होने का अनुमान हम सूखे मैदान को देखकर ही कर सकते हैं । इसी प्रकार यह तथ्य कि अशोक ने कलिंग के नरसंहार के बाद कोई युद्ध नहीं किया ऐतिहासिक तथ्य है और इसको केवल इतिहास के माध्यम से ही जाना जा सकता है ।
यद्यपि वैशेषिकों के मत का खण्डन कुमारिल के अनुयायियों ने नहीं किया है फिर भी श्रीधर का पार्थसारथि के अभाव संबंधी दृष्टिकोण पर पर्याप्त प्रभाव दिखायी पड़ता है ।
निषेध वास्तविक सत् है लेकिन इसे किसी निश्चित साधन द्वारा नहीं जाना जा सकता । यह अनुमान द्वारा भी जाना जा सकता है । अगर इसे अनुपलब्धि द्वारा जानना संभव है तो यह भी कहा जा सकता है कि यह केवल अनुपलब्धि ही नहीं है जो हमें निषेध का ज्ञान प्राप्त कराती है बल्कि योग्यानुपलब्धि है । श्रीधर के अनुसार जब हमें घट की उपलब्धि होती है तो जो हमें पहले घटाभाव का ज्ञान प्राप्त हुआ था, वह खंडित हो जाता है । उदाहरणार्थ, कमरे में घटाभाव है परंतु उस समय हम इसका अनुभव नहीं करते जब कुछ समय पश्चात् सेवक घट को कमरे में लाता है तब हमें यह प्रतीत होता है कि कुछ समय पूर्व कमरे में घटाभाव था । किन्तु भाट्ट दार्शनिकों के अनुसार पूर्वज्ञान पश्चात्ज्ञान हो जाने पर खंडित नहीं होता है ।।
श्रीधर के अनुसार ऐसे उदाहरणों में न्यायिक प्रक्रिया सम्मिलित है । जब एक वस्तु स्मरणीय है और उसका स्मरण नहीं हो पाता तो उसकों वहाँ पर अनुपस्थित होना चाहिए ।
३. न्यायमंजरी, पृष्ठ ५४-५५ ४. न्यायकन्दली, पृष्ठ २२५-२८