Book Title: Sambodhi 1993 Vol 18
Author(s): J B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 92
________________ भारतीय दर्शन में अभाव की समस्या हेमलता श्रीवास्तव भाट्ट मीमांसकों की अभाव के बारे में यह धारणा है कि यह एक वास्तविक सत्ता है और इसको हम अनुपलब्धि के द्वारा जानते हैं । भाट्ट मीमांसक और अद्वैत वेदान्ती अनुपलब्धि को ज्ञान का एक निश्चित स्रोत मानते हैं । परन्तु अन्य सभी सम्प्रदायों ने इसका विरोध किया है । जयन्त भट्ट के अनुसार यद्यपि अभाव एक सत्ता है, परन्तु ज्ञान का एक निश्चित साधन अनुलब्धि नहीं हैं । अब हम सभी सम्प्रदायों का वर्णन करके यह निर्णय लेते है कि अभाव को किस आधार पर स्वीकार या अस्वीकार करते है ? कुमारिल अभाव के वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण को मान्यता प्रदान करते है । अभावात्मक तथ्य चार भागों में वर्गीकृत किये जा सकते हैं । प्रथम, प्रागभाव के अन्तर्गत हम दूध में दही के अभाव वाले उदाहरण को, दूसरे प्रध्वंसाभाव के अन्तर्गत मृत्यु के बाद व्यक्ति के अभाव वाले उदाहरण को, तीसरे अन्योन्याभाव के अन्तर्गत गाय घोडा नहीं है और घोडा गाय नहीं है इस उदाहरण को, तथा चौथे अत्यन्ताभाव के अन्तर्गत आकाश-पुष्प का उदाहरण ले सकते है । अभाव आकाश-पुष्प की तरह असत् नहीं है । ___निषेधात्मक निर्णय से ही निषेधात्मक तथ्य का जन्म होता है । प्रश्न उठता है कि इसका ज्ञान हमें किस माध्यम से होता है ? ऐसा अनुपलब्धि प्रमाण के द्वारा संभव है । अभावात्मक निर्णयों को प्रत्यक्ष और अनुमान के माध्यम से नहीं जाना जा सकता है क्योंकि ये भावात्मक साधन है । प्रत्यक्ष में इन्द्रियप्रदत्तों का एक निश्चित विषय में संबंध है । दो अस्तित्ववान् वस्तुओं के बीच ही संबंध संभव है । शुद्ध अभाव संभव ही नहीं है । निषेध या अभाव सिर्फ शुद्ध मनस् के द्वारा संभव है प्रत्यक्ष या स्मृति के आधार पर नहीं । ___ प्रभाकर का अभाव संबंधी सिद्धान्त कुमारिल के विरुद्ध है । वे न तो अभाव को एक अलग पदार्थ मानते है और न अनुपलब्धि को अलग प्रमाण । अभावात्मक निर्णय वैध है क्योंकि ये भावात्मक तथ्य से अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित है । भावात्मक अस्तित्व का प्रत्यक्ष स्वयं के द्वारा दो प्रकार से संभव है । यहाँ पर यह आक्षेप किया जाता है कि हम दो चीजें मैदान और घट को प्राप्त करते है । और बाद में हम सिर्फ मैदान देखते है । अब, यहाँ पर इन दोनों में भेद का क्या कारण है ? अगर हम परवर्ती अनुभव को स्वीकार करते है तो प्रभाकर को अभाव की सत्ता को स्वीकार करना चाहिए लेकिन यहाँ ध्वंसाभाव मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । अतएव यह ज्ञान कि 'मैदान में कोई घर नहीं हैं, मात्र यह ज्ञान है कि घर का कही और अस्तित्व है इस लिए इस ज्ञान को किसी और प्रमाण की आवश्यकता नहीं है क्योंकि ज्ञान स्वप्रकाश है । __ अभाव के बारे में बौद्धों का मत कुछ हद तक प्रभाकर से मिलता जुलता है । अभाव को स्वतंत्र रूप से नहीं जाना जा सकता । अभाव विशेष समय, स्थान और विशेष विषय से संबंधित होने के कारण ही अनुभव किया जा सकता है । अतः अभाव के ज्ञान के लिए किसी स्वतंत्र प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । अभाव या निषेध का वास्तविक अस्तित्व नहीं है । इसी प्रकार निषेध निःस्वभाव है क्योंकि हमें अभाव का कोई विशेष स्वरूप नहीं दिखायी पड़ता है, जो इसे दूसरी सत्ताओं से अलग कर १. श्लोक वार्तिक, अभाव २. गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्या व प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽज्ञानपेक्षया ॥ श्लोकतार्तिक, अभाव-२७ ।

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