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सागरमल जैन
पारमार्थिक दृष्टि से विचार किया जावे तो जिस प्रकार कुम्हार, चक्र आदि निमित्तों के बिना मिट्टी स्वतः घट का निर्माण नहीं कर सकती उसी प्रकार आत्मा (स्वत:) बिना किसी बाह्य निमित्त के कोई भी ऐसी क्रिया नहीं कर सकता जो उसके बन्धन का कारण हो । वस्तुतः sta आदि कषाय, राग, द्वेष एवं मोह आदि बन्धन कारक मनोवृत्तियाँ भी आत्मा में स्वतः उत्पन्न नहीं हो सकती जब तक कि वे कर्म वर्गणाओं के विपाक के रूप में चेतना के समक्ष उपस्थित नहीं होती । यदि मनोवैज्ञानिक की दृष्टि से कहा जावे तो जिस प्रकार शरीररसायनों और रक्तरसायनों के परिवर्तन हमारे संवेगों (मनोभावों) का कारण होते हैं और संवेगों के कारण हमारे रक्तरसायन और शरीररसायन में परिवर्तन होते हैं, दोनों परिवर्तन परस्पर सापेक्ष हैं, ठीक उसी प्रकार कर्म करने के लिए आत्म तव और जड़ तत्त्व परस्पर सापेक्ष है । जड़ वर्गणाओं के कारण मनोभाव उत्पन्न होते हैं और उन मनोभावों के कारण पुन: जब कर्म परमाणुओं का बन्ध होता है, जो अपनी विपाक अवस्था में पुनः मनोभावों ( कषायों ) का कारण बनते हैं, इस प्रकार मनोभावों (आत्मिक प्रवृत्ति) और जड़ कर्म परमाणुओं का पारस्परिक प्रभाविकता का क्रम चलता रहता है । जैसे वृक्ष और बीज में पारस्परिक सम्बन्ध है, इसी प्रकार आत्मा के बन्धन की दृष्टि से आत्मा की अशुद्ध मनोवृत्तियों ( कषाय एवं मोह) और कर्म परमाणुओं में पारस्परिक सम्बन्ध है । जड़ कर्म परमाणु और आत्मा में बन्धन की दृष्टि से क्रमशः निमित्त और उपादान का सम्बन्ध माना गया है । कर्म पुद्गल बन्धन का निमित्त कारण है और आत्मा उसका उपादान कारण है ।
जैन विचारक एकान्त रूप में न तो आत्मा को स्वतः ही बन्धन का कारण मानते हैं और न जड़ कर्म वर्गणाओं को अपितु यह मानते हैं कि जड़ कर्म वर्गणाओं के निमित से आत्मा बन्ध करता है ।
द्रव्य कर्म और भाव कर्म :
कर्म के द्रव्यात्मक और भावात्मक ऐसे दो पक्ष हैं । प्रत्येक कर्म संकल्प के हेतु के रूप में विचारक आत्मा ( उपादान कारण) और उस विचार का प्रेरक (निमित्त कारण) दोनों ही आवश्यक है । आत्मा के मानसिक विचार भाव कर्म है और ये मनोभाव जिस निमित्त से होते हैं या जो इनका प्रेरक है वह द्रव्य कर्म है। आचार्य नेमिचन्द्र गोम्मटसार में कर्म के चेतन अचेतन पक्षों की व्याख्या करते हुए लिखते हैं- 'पुद्गल पिण्ड द्रव्य कम और उसकी चेतना को प्रभावित करने वाली शक्ति भाव कर्म है ।' कर्म सिद्धान्त की समुचित व्याख्या के लिए यह आवश्यक है कि कर्म के आकार ( Form ) और विषयवस्तु (Matter) दोनों ही हो । जड़ कर्म परमाणु कर्म की विषय वस्तु है, और मनोभाव उसके आकार है । हमारे सुख दुःखादि अनुभवों अथवा शुभाशुभ कर्म संकल्पों के लिए कर्म परमाणु भौतिक कारण हैं. और मनोभाव चैतसिक कारण हैं । आत्मा में जो मिथ्यात्व (अज्ञान) और कषाय (अशुभचित्तवृत्ति) रूप राग, द्वेष आदि भाव है, वही भाव - कर्म है । भाव-कर्म आत्मा का वैभाविक परिणाम (दूषित वृत्ति ) है और आत्मा स्वयं ही उसका उपादान है । भाव-कर्म का भी आन्तरिक कारण आत्मा है जैसे घट का आन्तरिक ( उपादान कारण मट्टी है । द्रव्यकर्म सूक्ष्म कार्मण जाति के परमाणुओं का विकार है और आत्मा उनका निमित्त कारण है ।
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