________________
सागरमल जैन और यह मानती है कि बन्धन का कारण अविद्या, वासना, तृष्णादि चैतसिक तत्व ही है । डा. टाटिया इस सन्दर्भ में जैन विचारणा की समुचितता पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं 'यद्यपि यह तर्क दिया जा सकता है कि क्रोधादि कषाय, जो आत्मा के बन्धन की स्थितियां हैं, वे आत्मा के ही गुण है और इसलिए आत्मा के गुणों (चैतसिक दशाओं) को आत्मा
के बन्धन का कारण मानने में कोई कठिनाई नहीं आती है। लेकिन इस सम्बन्ध में जैन विचारकों का उत्तर यह होगा कि क्रोधादि कषाय अवस्थाऐं बन्ध की प्रकृतियां हैं, क्रोधादि आदि कषाय अवस्था में होना तो स्वतः हो आत्मा का बन्धन है वे बन्धन उगधि (निमित्तकारण) नहीं हो सकती । कषाय बन्धन का सृजन करती है लेकिन उनकी उपाधि (Condition) को तो अनिवार्यता उनसे भिन्न होना चाहिए । क्योंकि कषाय आत्मा के गुण हैं, इसलिए उनका कारक या उपाधि (निमित्त) आत्मा के गुणों से भिन्न होना चाहिए
ओर इस प्रकार कषाय और बन्धन की उपाधि या निमित्त कारण अनिवार्य रूप से भौतिक होना चाहिए। यदि बन्धन का कारण आन्तरिक ओर चैतसिक ही है और किसी बाह्य तत्त्व से प्रभावित नहीं होता तो फिर उससे मुक्ति का क्या अर्थ होता ? जैन विचारणा के अनुसार यदि बन्धन और बन्धन का कारण दोनों ही समान प्रकृति के हैं तो उपादान और निमित्त कारण का अन्तर ही समाप्त हो जायेगा। यदि कषाय आत्मा में स्वतः ह! उत्सन्न हो जाते हैं तो वे उसका स्वभाव ही होंगे और यदि वे आत्मा का स्वभाव है तो उन्हें छोड़ा नहीं जा सकेगा और यदि उन्हें छोड़ना सम्भव नहीं तो मुक्ति भी सम्भव नहीं होगा । दूसरे जो स्वभाव हैं, वह आन्तरिक एवं स्वतः है और यदि स्वभाव में स्वतः बिना किसी बाह्य निमित्त के ही विकार आ सकता है तो फिर बन्धन में आने को सम्भावना बनी रहेगी
और मुक्ति का कोई अर्थ ही नहीं रहेगा । यदि पानी में स्वतः ही ऊष्णता उत्पन्न हों जावे तो शीतलता उसका स्वभाव नहीं हो सकता । आत्मा में भी यदि मनोविकार स्वतः ही उत्पन्न हो सके तो वह निर्विकार नहीं रह सकता । जैन विचारणा यह मानती है कि उष्णता के संयोग से किस प्रकार पानी स्वगुण शीतलता को छोड़ विकारी हो जाता है वैसे ही आत्मा जड़ कर्म परमाणुओं के संयोग से ही विकारी बनता है। कषायादि भाव आत्मा की विभाव अवस्था के सूचक हैं, वे स्वतः ही विभाव के कारण नहीं हो सकते। विभाव स्वतः प्रसृत नहीं होता उसका कोई बाह्य निमित्त अवश्य होना चाहिए । जैो पानी को शीतलता की स्वभाव दशा से ऊष्णता को विभाव दशा में परिवर्तित होने के लिए स्वभाव से भिन्न अग्नि के बाह्य निमित्त का संयोग आवश्यक होता है उसी प्रकार आत्मा को ज्ञानदर्शनरूप . स्व स्वभाव का परित्याग कर कषाय रूप विभाव दशा को ग्रहण करने के लिए बाह्य निमित्त के रूप कर्म पुद्गलों का होना आवश्यक है । जैन विचारकों के अनुसार जड़ कर्म परमाणु और चेतन आत्मा के पारस्परिक सम्बन्ध के बिना. विभाव दशा या बन्धन कथमपि सम्भव नहीं होता। समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता :
कर्ममय नैतिक जीवन की समुचित व्यवस्था के लिए, बन्धन और मुक्ति के वास्तविक विश्लेषण के लिए, एमग्र दृष्टकोण की आवश्यकता है । एक समग्र दृष्टिकोण बन्धन और मुक्ति को न तो पूर्णतया जड़ प्रकृति पर आरोपित करता है और न उसे मात्र चैतसिक तत्त्वों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org