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जैन कर्म सिद्धान्त : बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया परिषह और पौच सामयिक चरित्र सम्मिलित है। ये सभी कर्मास्रव का निरोध कर आत्मा को बंधन से बचाते हैं अतः संवर कहे जाते हैं ।
- यदि उपरोक्त आधारों पर हम देखें तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि संवर का तोरपर्य ऐसी मर्यादित जीवन प्रणाली है जिसमें विवेक पूर्ण आचरण (क्रियाओं का सम्पादन), मन, वाणी और शरीर की अयोग्य प्रवृत्तियों का संयमन, सद्गुणों का ग्रहण, कष्ट सहिष्णुता
और समत्व की साधना समाविष्ट हो। जैन दर्शन में संवर के साधक से अपेक्षा यही की गई है कि उसका प्रत्येक आचरण संयत एवं विवेकपूर्ण हो, चेतना सदैव जाग्रत हो, ताकि इन्द्रियों के विषय उसमें राग-द्वेष की प्रवृत्तियों को पैदा नहीं कर सके । जब इन्द्रियाँ और मन अपने विषयों के सम्पर्क में आते हैं तो उनके इस सम्पर्क से आत्मा में विकार या पासना उत्पन्न होने की सम्भावना उठ खड़ी होती है । अत: साधनामार्ग के पथिक को सदैव ही आग्रत रहते हुए, विषय सेवन रूप छिद्रों से आने वाले कर्मास्रव या विकार से अपनी रक्षा करनी है । मूत्रकृतांग में कहा गया है कि कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे हो साधक भी अध्यात्म योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों से सुरक्षित रखे ।१० मन वाणी शरीर और इन्द्रिय व्यापारों का संयमन ही साधना का लक्ष्य माना गया है। सच्चे साधक को व्याख्या करते हुए दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि जो सूत्र तथा उसके रहस्य को जानकर हाथ, पैर, वाणी तथा इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता है (अर्थात् सन्मार्ग में विवेकपूर्वक लगता है), अध्यात्म रस में ही जो मस्त रहता है और अपनी आत्मा का समाधि में लगाता है वही सच्चा साधक है । निर्जरा का अर्थ :
आत्मा के साथ कर्म पुद्गल का सम्बन्ध होना यह बन्ध है और आत्मा से कर्मवर्गणा की अलग होना यह निर्जरा है । संवर नवोन आने वाले कर्म पुद्गल का रोकना है परन्तु मात्र संवर से निर्वाग की प्राप्ति सम्भव नहीं । उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि जैसे किसी बड़े तालाब के जल स्रोतों (पानी के आगमन के द्वारों) का बन्द कर दिया जाए और उसके अन्दर रहे हुए जल को उलीचा जाय और ताप से सुखाया जाए तो वह विस्तीर्ण तालाब भी सूख जाएगा । प्रस्तुत रूपक में आत्मा हो सरोवर है, कर्म पानी है, कर्म का आस्रव ही पानी का आगमन है । उस पानो के आगमन के द्वारों को निरुद्ध कर देना संवर है और पानी का उलीचना और सुखाना निर्जरा है । यह रूपक यह बताता है कि संवर से नये कर्मों रूपी जल का आगमन (आस्रव) तो रुक जाता है लेकिन पूर्व में बन्धे हुए, सत्तारूप कर्मों का जल तो आत्मा रूपो तालाब में शेष रहा हुआ है जिसे सुखाना है । यह जल का सुखाना निर्जरा है । . ट्रॅव्य और भाव निर्जरा :
निर्जरा शब्द का अर्थ है जर्जरित कर देना, झाड़ देना अर्थात् आत्म तत्व से कर्म पुदगल का अलग हो जाना अथवा अलग कर देना निर्जा है । जैनाचार्यों ने यह निर्जरा दो प्रकार की मानी है । आत्मा को वह चैनसिक अवस्था जिसके द्वारा कर्म पुद्गल अपना फई देकर अलग हो जाते हैं, भाव निर्जरा कही जाती है। भाव निर्जरा आत्मा को वह विशुद्ध अवस्था है जिसके कारण कम परमाणु आत्मा से अग हो जाते हैं । यही कर्म
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