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जैन यक्षी अजिता : या रोहिणी का प्रतिमानिरूप । इस प्रकार दोनों परम्परामों में केवल यक्षी के नामों एवं आयुधों के सन्दर्भ में ही भिन्नता प्राप्त होती है। श्वेताम्बर परम्परा में अजिता के मुख्य आयुध पाश एवं अंकुश,
और दिगम्बर परम्परा में रोहिणी के मुख्य आयुध चक्र एवं शंख हैं । यक्षी का अजिता नाम सम्भवतः उनके जिन (अजितनाथ) से तथा रोहिणी नाम प्रथम जैन महाविद्या रोहिणो से ग्रहण किया गया है । __दक्षिण भारतीय परम्परा : दिगम्बर परम्परा के अनुसार चतुर्भुजा यक्षी के ऊपरी हाथों में चक्र, और नीचे के हाथों में अभयमुद्रा और कटकमुद्रा होने चाहिए । अज्ञातनाम श्वेतांबर ग्रन्थ में मकरवाहना चतुर्भुजा यक्षी के करों में वज्र, अंकुश, कटार (संकु) एवं पद्म के प्रदर्शन का निर्देश है । यक्ष-यक्षी लक्षण में धातुनिर्मित आसन पर विराजमान यक्षी के हाथों में वरदमुद्रा, अभयमुद्रा, शंख एवं चक्र का उल्लेख है । इस प्रकार उत्तर और दक्षिण भारत के ग्रन्थों में चक्र, शंख, अंकुश एवं अभय-(या वरद-)मुद्रा के प्रदर्शन में समानता प्राप्त होती है । यक्ष-यक्षी लक्षण का विवरण पूरी तरह प्रतिष्ठासारसंग्रह के समान है।
मूर्ति परंपरा : गजरात-राजस्थान : इस क्षेत्र की अजितनाथ मूर्तियों में यक्ष-यक्षी का चित्रण नहीं प्राप्त होता है । पर आबू, कुम्भारिया, तारंगा, सादरी, घाणेराव जैसे श्वेतांबर स्थलों (११वों-१२वीं शती ई०) पर दो ऊर्ध्व करों में अंकुश एवं पाश धारण करने वालो चतुभुजा देवो का निरूपण विशेष लोकप्रिय था। देवी के निचले करों में वरद-(या अभय-) मुद्रा एवं मातुलिंग (या जलपात्र) प्रदर्शित हैं । देवी का वाहन कभी गज और कभी सिंह है । देवो को संभा वेत पहचान अजिता से की जा सकती है" ।। उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश :
(क) स्वतन्त्र मूर्तियाँ : मालादेवी मन्दिर (ग्यारसपुर, विदिशा) एवं देवगढ़ से रोहिणी की दसवों-ग्यारहवीं शतो ई० को तीन मूर्तियाँ मिलो है । मालादेवी की मूर्ति (१०वों शती ई०) उत्तरी मण्डप के अधिष्ठान पर उत्कीर्ण है। इसमें द्वादशभुजा रोहिणी ललितमुद्रा में लोहासन पर विराजमान है। लोहासन के नीचे एक स्पष्ट सी पशु आकृति (संभवतः गजमस्तक) उत्कीर्ण है । यक्षी के छः अवशिष्ट हाथों में पद्म, वज्र, चक्र, शंख, पुष्प और पद्म प्रदर्शित हैं ।
देवगढ़ में रोहिणी की दो मूर्तियाँ हैं । एक मूर्ति (१०५९ ई०) मन्दिर ११ के सामने के स्तम्भ पर है । इसमें अष्टभुजा रोहिणी ललितमुद्रा में भद्रासन पर विराजमान है (देखें चित्र)। आसन के नीचे गोवाहन उत्कीर्ण है । रोहिणी वरदमुद्रा, अंकुश, बाण, चक्र, पाश, धनुष, शूल एवं फल से युक्त है । दूसरी मूर्ति (११वों शती ई०) मन्दिर १२ के अर्धमण्डप के समीप के स्तम्भ पर उत्कीर्ण है । इसमें गोगहना रोहिणी चतुर्भुजा है और उसकी भुजाओं में वरदमुद्रा, बाण, धनुष एव जलपात्र हैं ।
(ख) जिन-संयुक्त मूर्तियाँ : अजितनाथ की मूर्तियों में यक्षी का अपने विशिष्ट स्वतन्त्र स्वरूप में निरूाग नहीं प्राप्त होता है । देवगढ़ एवं खजुराहो की अजितनाथ की मूर्तियों में सामान्य लक्षणों वाली द्विभुजा यक्षी अभयमुद्रा (या खड्ग) एवं फल (या जलपात्र) से युक्त
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