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जैन कर्म सिद्धान्त : बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया और मोह (अज्ञान) यह दो कारण बचते हैं, जो अन्योन्याश्रित है । बन्धन के रूप
जैन दर्शन में कर्म के आठ प्रकार माने गये है१. ज्ञानावरणीय - यह आत्मा की ज्ञानात्मक शक्ति को कुण्ठत करता है ।
२. दर्शनावरणीय- यह आत्मा की अनुभाविक एवं प्रत्यक्षीकरण की शक्ति को कुण्ठित करता है।
३. वेदनीय- इसके कारण आत्मा को लौकिक सुख-दुःख का संवेदन होता है । इसके दो प्रमुख भेद है-सातावेदनीय और असातावेदनीय ।
४. मोह कर्म- यह व्यक्ति के यथार्थ दृष्टिकोण और सम्यक् आचरण में बाधक होता है । इसके भी दो प्रमुख भेद हैं- १. दर्शन मोह और २. चरित्र मोह ।।
५. आयुष्य कर्म - यह व्यक्ति की योनि और आयुष्य का निर्धारण करता है।
६. नाम कर्म- यह व्यक्ति के व्यक्तित्व (Personality) का रचियता है । यही शारीरिक सौन्दर्य और असौन्दर्य के लिए उत्तरदायी है । . ७. गोत्र कर्म- यह व्यक्ति की जाति और कुल का निर्धारण करता है ।
८. अन्तराय कर्म- यह प्राणी की अभीष्ट उपलब्धियों में बाधा पहुँचाता है । यह बाध उत्पन्न करता है। घाती और अघाती कर्म :
___ कर्मों के इस वर्गीकरण में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय इन चार कर्मों का घातिक और नाम गोत्र, आयुष्य और वेदनीय इन चार कर्मो को अघातिक माना माता है । घातिक कर्म आत्मा के ज्ञान, दर्शन और शक्ति नामक स्वाभाविक गुणों का आवरण करते है । ये कर्म आत्मा की स्वाभावदशा को विकृत करते हैं, अतः जोवन --मुक्ति में बाधक होते हैं । इन घातिक कर्मों में अविद्या रूप मोहनीय कर्म ही आत्म स्वरूप के आवरण, क्षमता, तीव्रता और स्थितिकाल की दृष्टि से प्रमुख है । वस्तुतः मोहकर्म ही एक ऐसा कर्म संस्कार है जिसके कारण कर्म बन्ध का प्रवाह सतत बना रहता है मोह कर्म उस बीज के समान है जिसमें अंकुर शक्ति है, जिस प्रकार उगने योग्य बीज हवा, पानी आदि के सहयोग से अपनो परम्परा को बढ़ाता रहता है उसी प्रकार मोह कर्मरूपी कर्म बीज ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय रूप हवा, पानी आदि के सहयोग से कर्म परम्परा को सतत बनाए रखता है । मोहकर्म ही जन्म मरण, संपार या बन्धन का मूल है। शेष घातिक कर्म उसके सहयोगी मात्र है । इसे कर्मों का सेनापति कहा गया है । जिस प्रकार सेनापति के पराजित होने पर सारी सेना हतप्रभ हो शीघ्र ही पराजित हो जाती है उसी प्रकार मोह कर्म पर विजय प्राप्त कर लेने पर शेष सारे कर्मों को आसानी से पराजित कर आत्म शुद्धता की उपलब्धि की जा सकती है। जैसे ही मोह विनष्ट हो जाता है तत्क्षग ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण का पर्दा हट जाता है, अन्तराय या बाधकता समाप्त हो जाती है और व्यक्ति जोवनमुक्त बन जाता है।
अघातिक कर्म वे हैं, जो आत्मा की स्वभाव दशा की उपलब्धि और विकास में बाधक नहीं होते हैं | अघातिक कर्म भुने हुए बीज के समान हैं, जिनमें नवीन कर्मों की उत्पादन
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