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सागरमल जैन
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(ख) अविरति - यह अमर्यादित एवं असंयमित जीवन प्रणाली है, इसके भी ५ भेद हैं- १. हिंसा, २. असत्य ३. स्तेय वृत्ति, ४. मैथुन ( काम वासना) और ५. परिग्रह (आसक्ति)
(ग) प्रमाद - सामान्यतया समय का अनुपयोग एवं दुरुपयोग प्रमाद है । लक्ष्योन्मुख प्रयास के स्थान पर लक्ष्य विमुख प्रयास समय का दुरुपयोग है जबकि प्रयास का ही अभाव अनुपयोग है । वस्तुतः प्रमाद आत्म चेतना का अभाव है । प्रमाद पाँच प्रकार के माने गये हैं९. विकथा- जीवन के लक्ष्य ( साध्य ) और उसके साधना मार्ग पर विचार नहीं करते हुए अनावश्यक चचाएँ करना विक्रथा है । विकथाएँ चार प्रकार की है । १. राज्य सम्बन्धी, २. भोजन संबंधी, ३. स्त्रियों के रूप सौन्दर्य सम्बन्धी और ४. देश सम्बन्धी । २. कषाय- क्रोध, मान माया और लोभ । इनकी उपस्थिति में आत्म चेतना कुण्ठित होती है । अतः ये भी प्रमाद है ।
२. राग- आसक्ति भी
आत्म चेतना को कुण्ठित करती है इसलिए प्रमाद कही जाती
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४. विषय सेवन - पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन ।
५. निद्रा - विकथा समय का दुरुपयोग है जबकि निद्रा समय का अनुपयोग है ।
(घ) कषाय - क्रोध, मान, माया और लोभ यह चार मनोदशाएँ कषाय हैं, जो अपनी तीव्रता और मन्दता के आधार पर १६ प्रकार की होती है । इसके अतिरिक्त इन कषायों के जनक हास्यादि ९ प्रकार के मनोभाव उपकषाय हैं । कषाय और उपकषाय मिलकर पच्चीस होते हैं ।
(ड.) योग - जैन शब्दावली में योग का अर्थ क्रिया है जो तीन प्रकार की हैं । १. मानसिक क्रिया (मनोयोग ) २. वाचिक क्रिया ( वचन योग ) ३. शारीरिक क्रिया ( काय योग ) । यहाँ क्रियाओं के विभिन्न रूपों के विस्तार में जाना श्रेयस्कर नहीं होगा ।
यदि हम बन्धन के प्रमुख कारणों को और भी संक्षेत्र में जानना चाहें तो जैन परम्परा : में बन्धन के मूलभूत तीन कारण राग ( आसक्ति) द्वेष और मोह माने गये हैं । उत्तराध्यगया है ।" और उन दोनों का
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यनसूत्र में राग और द्वेष इन दोनों को कर्मबोज कहा कारण मोह बताया गया है । यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ रहते हैं फिर भी उनमें राग ही प्रमुख है । राग के कारण हो द्वेष होता है । जैनकथानकों के अनुसार इन्द्रभूति गौतम का महावीर के प्रति प्रशस्त राग भी उनके कैवल्य की उपलब्धि में बाधक रहा था । इस प्रकार राग एवं मोह ( अज्ञान) ही बन्धन के प्रमुख कारण है । आचार्य कुन्दकुन्द राग को प्रमुख कारण बताते हुये कहते हैं – आसक्त आत्मा ही वर्म बन्ध करता है और अनासक्त मुक्त हो जाता, यही जिन भगवान का उपदेश । इसलिए कर्मों में आसक्ति मत रखें | लेकिन यदि राग (आसक्ति) का कारण जानना चाहे तो जैन परम्परा के अनुसार मोह ही इसका कारण सिद्ध होता है । यद्य पे यह स्मरण रखना चाहिए कि मोह और रागद्वेष सापेक्ष रूप में एक दूसरे के कारण बनते हैं । इस प्रकार द्वेष का कारण राग और राग का कारण मोह है । मोह तथा राग ( आसक्ति) परस्पर एक दूसरे के कारण हैं । अतः वास्तविक रूप में राग-द्वेष और मोह यह तीन ही जैन परम्परा में बन्धन के कारण है । इसमें से द्वेष को जो राग ( आसक्ति ) जनित है, छोड़ देने पर शेष राग (आसक्ति )
રી
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