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जैन कर्म सिद्धान्त : बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया
जैसे कुम्हार घड़े का निमित्त कारण है । आचार्य विद्यानन्दी ने अष्ट सहस्त्री में द्रव्य कर्म को 'आवरण' और भाव कर्म को 'दोष' के नाम से अभिहित किया है। चुकि द्रव्य कर्म आत्मशक्तियों के प्रकटन को रोकता है अतः वह 'आवरण' है और भाव कर्म स्वयं आत्मा की ही विभावावस्था है अतः वह 'दोष' है । जिस प्रकार जैन विचारणा में कर्म के आवरण और दोष दो कार्य होते हैं उसी प्रकार वेदान्त में माया के दो कार्य माने गये हैं आवरण और विक्षेप । आचार्य ने आवरण और दोष अथवा द्रव्य कर्म और भाव कर्म के मध्य अन्योन्य कार्य-कारण सम्बन्ध स्वीकार किया है। जैन कर्म सिद्धान्त में मनोविकारों के स्वरूप का निर्धारण कर्म परमाणुओं के स्वरूप के निर्धारण पर निर्भर होता है ओर कर्म परमाणुओं के स्वरूप का निर्धारण मनोविकारों के आधार पर होता है । इस प्रकार जैन विचारणा में कर्म के चेतन और अचेतन दोनों पक्षों को स्वीकार किया गया है जिसे वह अपनी पारिभाषिक शब्दावलि में द्रव्य-कर्म और भाव कर्म कहती है ।
जिस प्रकार किसी कार्य के लिए निमित्त और उपादान दोनों प्रकार के कारण आवश्यक है उसी प्रकार जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार आत्मा (जीव) के प्रत्येक कर्म संकल्प के लिए उपादान रूप में भाव कर्म (मनोविकार) और निमित्त रूप में द्रव्य कर्म (कर्म परमाणु) दोनों ही आवश्यक है । जड़ परमाणु कर्म का भौतिक या अचित पक्ष है और जड़ कर्म परमाणुओं से प्रभावित विकारयुक्त चेतना की अवस्था कर्म का चैतसिक पक्ष है । 'जैन विचारणा के अनुसार जीव की, जो शुभाशुभ रूप नैतिक प्रवृत्ति है, उसका मूल कारण तो मानसिक (भावकर्म) है लेकिन उन मानसिक वृत्तियों के लिए जिस बाह्य कारण की अपेक्षा है वह द्रव्य कर्म है । इसे हम व्यक्ति का परिवेश कह सकते हैं । मनोवृत्तियों किंवा भावों की उत्पत्ति स्वतः नहीं हो सकती है, उसका भी कारण अपेक्षित है। सभी भाव जिस निमित्त की अपेक्षा करते हैं वही द्रव्य कर्म है । इसी प्रकार जब तक आत्मा में कषायों (मनोविकार) किंवा भावकर्म की उपस्थिति नहीं हो तब तक कम परमाणु जीव के लिए कर्म रूप में (बन्धन के रूप में) परिणत नहीं हो सकता । इस प्रकार कर्म के दोनों पक्ष अपेक्षित है । द्रव्य कर्म और भाव कर्म का सम्बन्ध :
पंडित सुखलाल जी लिखते हैं भाव कर्म के होने में द्रव्य कर्म निमित्त है और द्रव्य कर्म में भाव कर्म निमित्त । उन दोनों का वापस में बाजाकुंर की तरह कार्य-कारण-भाव सम्बन्ध है । इस प्रकार जैन दर्शन में कर्म के चेतन पक्ष और जड़ पक्ष में बीजाकुंवत् पारस्परिक कार्यकारण सम्बन्ध माना गया है। जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज बनता है और उनमें किसी को भी पूर्वापर नहीं कहा जा सकता है, उसी प्रकार द्रव्य कर्म और भाष कर्म में भी किसी पूर्वापरता का निश्चय नहीं किया जा सकता है । यद्यपि प्रत्येक द्रव्यकर्म की अपेक्षा से उसका भावकर्म पूर्व होगा और प्रत्येक भावकर्म के लिए उसका द्रव्यकर्म पूर्व होगा । वस्तुतः इनमें संतति अपेक्षा से अनादि कार्य कारण भाव है । उपाध्याय अमा मुने जो भी लिखते हैं भाव कर्म के होने में पूर्व बद्ध द्रव्य कर्म निमित्त है और वर्तमान में वध्यमान द्रव्य कर्म में भाव कर्म निमित्त है । दोनों में निमित्त नैमित्तिक रूप कार्य-कारण सम्बन्ध है ।' बन्धन की प्रक्रिया : __ यहाँ पर यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो सकता है कि कर्मो के भौतिक पक्ष को क्यों स्वीकार करें १ बौद्ध विचारणा कर्म के चैतसिक पक्ष को ही स्वीकार करती है
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