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- जैन कर्म सिद्धान्तः बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया
सागरमल जैन कर्म सिद्धान्त का अर्थ :
वैज्ञानिक जगत में तथ्यों और घटनाओं की व्याख्या के लिए जो स्थान कार्य-कारण. सिद्धान्त का है आध्यात्मिक जगत में वही स्थान 'कर्म सिद्धान्त' का है । कर्म सिद्धान्त का आशय यही है के आध्यात्मिक और नैतिक जगत में भी भौतिक जगत की ही भाँति पर्याप्त कारण के बिना कुछ भी घटित नहीं हो सकता । फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि कर्म सिद्धान्त का एक दोहरा अर्थ है, एक और वह हमारे वर्तमान व्यक्तित्व एवं वर्तमान जीवन के सुख-दुःख की व्याख्या हमारे भूत कालीन व्यक्तित्व एवं जीवन शैली के आधार पर करता है और हमारे वर्तमान के लिए हमें स्वयं हो उत्तरदायी बनाकर प्रतिवेशो और ईश्वर के प्रति कटुता का निवारण करता है, तो दूसरी वह हमें सचेत करता है कि हमारी वर्तमान जीवन शैली ही हमारे भावो व्यक्तित्व की निर्माता है । एक और वह वर्तमान को भूत के प्रकाश में समझने का प्रयास है तो दूसरी और वह वर्तनान के द्वारा 'भावा' की रचना या निर्मिति का व्याख्या कार भी । इस प्रकार कर्म सिद्धान्त एक व्यापक अर्थ में व्यक्ति के बन्धन से मुक्ति तक की समस्त प्रक्रिया को व्याख्या प्रस्तुत करता है। उपकी आधारभूत मान्यता यह है कि व्यक्ति ही अपने व्यक्तित्व का निर्माता है । हम जो कुछ हैं और हमें जो कुछ होना है, उसके मूल कारण हम ही हैं । कर्म सिद्धान्त की कुछ मौलिक एवं आधारभूत मान्यताएँ निम्न हैं--- कर्म सिद्धान्त की आधार भूत मान्यताएँ :
(अ) व्यक्ति का वर्तमान व व्यक्तित्व उसके पूर्ववर्ती व्यक्तित्व (चरित्र) का परिणाम है और यही वर्तमान व्यक्तित्व (चरित्र) उसके भावी व्यक्तित्व का निर्माता है,
(ब) नैतिक दृष्टि से जिस व्यक्ति ने क्रियाएँ की है वही उनके परिणामों का भोक्ता भी है । यदि वह उन सब परिणामों को इस जीवन में नहीं भोग पाता है, तो वह उन परि. णामों को भोगने के लिए भावी जन्म ग्रहण करता है । इस प्रकार कर्म सिद्धान्त से पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी फलित होता है ।
(स) साथ ही इन परिणामों के भोग के लिए इस शरीर को छोड़ने के पश्चात् दूसरा शरीर ग्रहण करने वाला कोई स्थायी तत्व भी होना चाहिए । इस प्रकार नैतिक कृत्यों के अनिवार्य फल भोग के साथ आत्मा की अमरता का सिद्धान्त जुड़ जाता है। यदि कर्म सिद्धान्त की मान्यता के साथ आत्मा की अमरता स्वीकार नहीं की जाती है तो जन विचारकों की दृष्टि में कृत प्रणाश और अकृत भोग के दोष उपस्थित होते हैं। उनकी दृष्टि में आत्मा की अमरता या नित्यता की धारणा के अभाव में कर्म सिद्धान्त काफी निर्बल पड़ जाता है। इस प्रकार आत्मा की अमरता की धारणा कर्म सिद्धान्त की अनिवार्य फलश्रुति है ।
(द) कर्म सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि आचार के क्षेत्र में शुभ और अशुभ ऐसी दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती है । साथ ही शुभ प्रवृत्ति का प्रतिफल शुभ और अशुभ प्रवृत्ति का प्रतिफल अशुभ होता है।
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