Book Title: Saman suttam Part 1
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 33
________________ ३५. जो सिय भेदुवयारं, धम्माणं, कुणइ एगवत्थुस्स। सो ववहारो भणियो, विवरीओ णिच्छयो होइ।।४।। ३६. ववहारेणुवदिस्सइ, णाणिस्स चरित्तं दंसणं णाणं। ण वि णाणं ण चरित्तं, न दंसणं जाणगो सुद्धो॥५॥ ३७. एवं ववहारणओ, पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण। णिच्छयणयासिदा पुण, मणिणो पावंति णिव्वाणं ।।६।। ३८. जह ण वि सक्कमणज्जो, अणज्जभासं विणा उगाहे। तह ववहारेण विणा, परमत्थुवएसणमसक्कं ॥७॥ ३९. ववहारोऽभूयत्थो, भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूयत्थमस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो।। ८॥ ४०. निच्छयमवलंबंता, निच्छयतो निच्छयं अजाणता। नासंति चरणकरणं, बाहिरकरणालसा केई॥९॥ ४१. सुद्धो सुद्धादेसो, णायव्वो परमभावदरिसीहिं। ववहारदेसिदा पुण, जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे॥१०॥ समणसुत्तं - भाग १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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