Book Title: Saman suttam Part 1
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 103
________________ ८२ Jain Education International २९८. सन्ति एगेहिं भिक्खूहिं, गारत्था संजमुत्तरा । गारत्थेहिं य सव्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा ॥ ३ ॥ २९९. नो खलु अहं तहा, संचाएमि मुंडे जाव पव्वइत्तए । अहं णं देवाणुप्पियाणं, अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइय दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिस्सामि ॥ ४ ॥ ३००. पंच य अणुव्वयाई, सत्त उ सिक्खा उ देसजइधम्मो । सव्वेण व देसेण व, तेण जुओ होइ देसजई ॥ ५ ॥ २३. श्रावकधर्मसूत्र ३०१. संपत्तदंसणाई, पइदियहं जइजणा सुणेई य । समायारिं परमं जो, खलु तं सावगं बिंति ॥ १ ॥ ३०२. पंचुंवरसहियाई, सत्त वि विसणाई जो विवज्जेइ । सम्मत्तविसुद्धमई, सो दंसणसावओ भणिओ ॥ २ ॥ ३०३. इत्थी जूयं मज्जं, मिगव्व वयणे तहा फरुसया य । दंडफरुसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त वसणाई ॥ ३ ॥ ३०४. मांसासणेण वड्ढइ दप्पो दप्पेण मज्जमहिलसइ । जूयं पि रमइ तो तं, पि वाणिए पाउणइ दोसे || ४ || समणसुत्त भाग १ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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