Book Title: Saman suttam Part 1
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 83
________________ २२८. उवभोगमिंदियेहिं, दव्वाणमचेदणाणमिदराणं । जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ।। १०॥ २२९. सेवंतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई। परगणचेट्ठा कस्स वि, ण य पायरणो त्ति सो होई॥११॥ २३०. न कामभोगा समयं उति, न यावि भोगा विगइं उति। जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ॥१२॥ (आ) सम्यग्दर्शन-अंग २३१. निस्संकिय निक्कंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उवबूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ॥१३॥ ६२ समणसुत्त - भाग १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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