Book Title: Saman suttam Part 1
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 73
________________ ५२ Jain Education International १९६. णिच्छयववहारसरूवं, जो रयणत्तयं ण जाणइ सो । जे कीरइ तं मिच्छा-रूवं सव्वं जिणुद्दिट्टं ॥ ५ ॥ १९७. सद्दहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणो य फासेदि । धम्मं भोगणिमित्तं, ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥ ६ ॥ १९८. सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पाव त्ति भणियमन्नेसु । परिणामो णन्नगदो, दुक्खक्खयकारणं समये ॥ ७ ॥ १९९. पुण्णं पि जो समिच्छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि । पुण्णं सुगईहेदुं, पुण्णखएणेव णिव्वाणं ॥ ८ ॥ २०० कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाण व सुसीलं । कह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि ॥ ९ ॥ २०१. सोवण्णियं पि णियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं । बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्भं ॥ १० ॥ २०२. तम्हा दु कुसीलेहिं य, रायं मा कुणह मा व संसग्गं । साहीणो हि विणासो, कुसीलसंसग्गरायेण ।। ११ ।। समणसुत्त भाग १ For Private - Personal Use Only www.jainelibrary.org

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