Book Title: Saman suttam Part 1
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
(आ) निश्चर-रत्नत्रय २१४. सम्मइंसणणाणं, एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं।
सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो॥७॥
दसणणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णि वि, अप्पाणं जाण णिच्छयदो ॥८॥
२१६. णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो
अप्पा । ण कुणदि किंचि वि अन्नं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति।।९।।
२१७. अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो।
जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्तमग्गु त्ति ॥१०॥
२१८. आया हु महं नाणे, आया मे दंसणे चरित्ते य।
आया पच्चक्खाणे, आया मे संजमे जोगे॥११।।
१८. सम्यक्त्वसूत्र
(अ) व्यवहार-सम्यक्त्व : निश्चय-सम्यक्त्व २१९. सम्मत्तरयणसारं, मोक्खमहारुक्खमूलमिदि भणियं।
तं जाणिज्जइ णिच्छय-ववहारसरूवदोभेयं ॥१॥
२२०. जीवादी सद्दहणं, सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णतं।
ववहारा णिच्छयदो, अप्पा णं हवइ सम्मत्तं ।।२।।
समणसुत्तं - भाग १
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119