Book Title: Saman suttam Part 1
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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७२. न वि तं कुणइ अभित्तो, सुट्ठ वि य विराहिओ समत्थो
वि। जं दो वि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य॥२॥
७३. न य संसारम्मि सुहं, जाइजरामरणदुक्खगहियस्स।
जीवस्स अत्थि जाहा, तम्हा मुक्खो उवादेओ।।३॥
७४. तं जइ इच्छसि गंतुं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स।
तो तवसंजमभंडं, सुविहिय! गिण्हाहि तूरंतो॥४॥
७५. बहुभयंकरदोसाणं, सम्मत्तचरित्तगुणविणासाणं।
नहु वसमागंतव्वं, रागदोसाण पावाणं ।।५।।
७६. कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स
सदेवगस्स। जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छड़ वीयरागो।।६॥
७७. जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वायरेण करणिज्जं।
मुच्चइ हु ससंवेगी, अणंतवो होइ असंवेगी।॥७॥
७८ . एवं ससंकप्पविकप्पणासुं, संजायई समयमुवट्ठियस्स।
अत्थे य संकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तण्हा ॥८॥
७९. अन्नं इमं सरीरं, अन्नो जीवु त्ति निच्छियमईओ।
दुक्खपरीकेसरकर, छिंद ममत्तं सरीराओ॥९॥
८०. कम्मासवदाराई, निरूभियव्वाई इंदियाई च।
हंतव्वा य कसाया, तिविहं-तिविहेण मुक्खत्थं ॥१०॥
समणसुत्त - भाग १
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