Book Title: Samadhimaran Ya Sallekhana Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Pandit Todarmal Smarak Trust View full book textPage 7
________________ आगम के आलोक में - समाधिमरण या सल्लेखना मानसिक दुःखों को आधि कहते हैं, शारीरिक कष्टों को व्याधि कहते हैं, बाह्य संयोगों कृत उपद्रवों को उपाधि कहते हैं और इन तीनों से रहित आत्मस्वभाव में समा जाने को समाधि कहते हैं। आधि, व्याधि और उपाधि में विषमता है। इनमें सुख-शांति नहीं; आकुलता है, अशान्ति है। भगवान आत्मा के स्वभाव में न आकुलता है, न अशान्ति है। इसलिये आत्मस्वभाव में समा जाने रूप समाधि में समाहित हो जाना ही धर्म है, आत्मधर्म है। वर्तमान भव को छोड़कर आगामी भव में जाने को मरण कहते हैं। वर्तमान भव के समस्त संयोगों का एक साथ वियोग होने का नाम मरण हैं। यद्यपि यह मरण जीर्ण-शीर्ण देह आदि संयोगों के वियोग का नाम है; तथापि इनमें एकत्वबुद्धि के कारण, ममत्वबुद्धि के कारण, अपनेपन के कारण देह आदि सभी संयोगों के वियोग की कल्पना भी अज्ञान अवस्था में इस जीव को आकुल-व्याकुल कर देती है। वस्तुस्वरूप के जानकार ज्ञानीजन स्वयं को देहादि सभी संयोगों से अत्यन्त भिन्न समझते हैं; इस कारण इनके वियोग में होने वाला दुःख उन्हें नहीं होता । चारित्रमोह के उदय से थोड़ा-बहुत दुःख होता भी है, तो वह अज्ञानी के दुःख से अनन्तवाँ भाग है। ___सदा समता भाव में रहने वाले ज्ञानीजन इन सभी संयोगों के सहज ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं, और श्रद्धा की अपेक्षा से सदा समाधि में ही रहते हैं।Page Navigation
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