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पाठकों के पत्र......
डॉ. हुकमचंदजी भारिल्ल द्वारा लिखित 'आगम के आलोक में समाधिमरण या सल्लेखना' नामक कृति को पढकर शिवाड-सवाईमाधोपुर (राज.) से वयोवृद्ध पण्डित बसन्तकुमारजी जैन शास्त्री लिखते हैं 'आदरणीय श्री विद्वरत्न डॉ. हुकमचंदजी भारिल्ल सा.
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सादर जयजिनेन्द्र । शुद्धात्मसत्कार !
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आपकी लिखी पुस्तक 'आगम के आलोक में समाधिमरण या सल्लेखना ' मेरे हाथ में है। मैंने इसका आद्योपान्त अध्ययन किया है और पाया है कि आपने यह पुस्तक सटीक लिखी है | आगम के प्रमाण - आगमानुकूल है।
मैं समझ सकता हूँ कि सल्लेखना या समाधिमरण को आज हमारे विद्वानों और महामुनिराजों ने क्लिष्ट बना दिया है। सरल - सामान्य और अन्तसमय में भावनाओं को सहज बनाने की जगह आकुलित रूप दे दिया है।
मेरी आयु 84 वर्ष चल रही है और मैं आगमानुकूल श्रावकधर्म का पालन करता हुआ संयम साधना और सल्लेखना समाधि का अभ्यास कर रहा हूँ ।
जब शरीर छोड़ना ही है तो शान्त सरल परिणामों से ही क्यों न छोड़ें। कब छोड़ना है, इसका तो भान नहीं; पर छोड़ना जरूर है।
मेरा अनुभव है कि 70 वर्ष की आयु के बाद अन्न नहीं लेना चाहिये। शरीर के परमाणुओं के अनुकूल फल, दूध व जल लेना चाहिये । अन्न 50-60 वर्ष की आयु तक ही शरीर का पोषक रहता है । पश्चात् तो बीमारी पैदा करता है । वृद्धावस्था में अन्न का उपयोग न करने से शरीर हल्का रहता है और मन भी संतुलित रहता है, जिसे संयम कहा जाता है। इससे शरीर के साथ-साथ कषाय भी कृश हो जाती है ।
मेरी 84 वर्ष की आयु में भी अन्न का त्याग रहते हुये भी शरीर में कोई बीमारी जैसे बी.पी., डायबिटीज या अन्य बीमारी नहीं है । कमर और घुटनों में दर्द भी नहीं। हाँ शरीर शिथिल जरूर है - सो इन पुद्गल परमाणुओं का अपना स्वभाव है।
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मैं रोजाना आपको सुबह 7 बजे जिनवाणी चैनल पर सुनता हूँ और बहुत अच्छा लगता है । आगम की वास्तविकता का बोध भी होता है । आपको बहुत बहुत धन्यवाद ।" दिनांक 3-11-2015
आपका ही अपना
बसन्तकुमार जैन शास्त्री 50/358, प्रतापनगर, सेक्टर-5, सांगानेर, जयपुर