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आगम के आलोक में
जब उसकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाये और मरण निकट हो तो साधक उस जल का भी त्याग कर दे ।। ६६ ॥
- (सागार धर्मामृत, भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ ३३६) मृत्यु का संशय या निश्चय होने की अपेक्षा भक्त प्रत्याख्यान विधि
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एदम्हि देसयाले, उवक्कमो जीविदस्स जदि मज्झं । एदं पच्चक्खाणं, णित्थिपणे पारणा हुज्ज ।। ११२ ।। सव्वं आहारविहिं, पच्चक्खामि य पाणयं वज्ज । उवहिं च वोसरामि य, दुविहं तिविहेण सावज्जं ।। ११३ ।। जो कोइ मज्झ उवधी, सब्भंतरबाहिरो य हवे । आहारं च सरीरं, जावज्जीवं य वोसरे । । ११४ ।। - (आचार्य वट्टकेर, मूलाचार, ११२ ११४)
जीवित रहने में सन्देह होने की अवस्था में ऐसा विचार करें कि इस देश में, इस काल में मेरा जीने का सद्भाव रहेगा तो ऐसा त्याग है कि जब तक उपसर्ग रहेगा, तब तक आहारादिक का त्याग है।
उपसर्ग दूर होने के पश्चात् यदि जीवित रहा तो फिर पारणा करूँगा ।। ११२ ।।
यदि निश्चय हो जाए कि इस उपसर्गादि में मैं नहीं जी सकूँगा, वहाँ ऐसा त्याग करें कि मैं जल को छोड़कर, अन्य तीन प्रकार के आहार का त्याग करता बाह्य और अभ्यन्तर, दोनों प्रकार के परिग्रह तथा मनवचन-काय की पाप-क्रियाओं को छोड़ता हूँ ।। ११३ ।
जो कुछ मेरे अभ्यन्तर - बाह्य परिग्रह है, उसे तथा चारों प्रकार के आहार को और अपने शरीर को यावज्जीवन छोड़ता हूँ, यही उत्तमार्थ त्याग है ।। ११४ ।। "
1. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 4, पृष्ठ 388