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आगम के आलोक में
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जब भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने यह नाटक लिखा होगा; तब उन्होंने सोचा भी न होगा कि कोई इस नाटक से ऐसी शिक्षा भी ले सकता है।
इसीप्रकार जब उक्त कवि ने यह छन्द लिखे होंगे, तब उन्होंने सोचा भी न होगा कि इससे ऐसा भी हो सकता है कि लोग सल्लेखना ग्रहण करने से डरने लगेंगे, कतराने लगेंगे।
सल्लेखना के समय न भय का वातावरण होना चाहिये, न आतंक का; न हंसी-खुशीका, नरंज का; एकदम शान्त वातावरण होना चाहिये। ___ 'एकदम शान्त वातावरण क्या होता है' - हम तो यह भी नहीं जानते।
रोने-धोने के वातावरण को तो शान्त कहते ही नहीं; हंसी-खुशी के वातावरण को भी शान्त वातावरण नहीं कहते। जिसमें न रोनाधोना हो और न हंसी-खुशी; क्योंकि ये दोनों कषायरूप हैं, शान्तिरूप नहीं, समताभावरूप नहीं । एकदम समता हो, शान्ति हो। ऐसा वातावरण चाहिये।
अरे, भाई! जिनका अनादि-अनन्त आत्मा में अपनापन है; उनके लिये इन बाह्य क्षणिक संयोगों का वियोग क्या महत्व रखता है। अतः । संयोगों के वियोग रूप मरण उन पर क्या प्रभाव डाल सकता है। ___ सम्यग्दृष्टी सल्लेखनाधारियों को भी यदि संयोगों में चारित्रमोहजन्य थोड़ा बहुत आकर्षण हो तो भी वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि यदि ये संयोग जायेंगे तो अगले भव में इनसे कई गुने अच्छे संयोग उन्हें सहज ही प्राप्त होंगे; पर बात तो यह है कि ज्ञानियों को संयोगों में रस ही नहीं है।
एक भाई ने मुझसे पूछा - "क्या हो रहा है?" मैंने कहा - "सल्लेखना की तैयारी।" . एकदम घबड़ाते हुये वे बोले - "क्या कहा, सल्लेखना की तैयारी । क्यों क्या हो गया?" मैंने कहा – “कुछ नहीं।"