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समाधिमरण या सल्लेखना
४९ पण्डित सदासुखदासजी के उद्धरण में जिन कष्टों की चर्चा की है; वे सभी को होंगे ही - ऐसा नहीं है। कभी कदाचित् किसी को हो जावें तो क्या करें - तदर्थ मार्गदर्शन दिया है।
यदि हम सावधान रहें और वात-पित्त-कफ को कुपित न होने दें तो किसी भी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होगा। शुद्ध सात्विक वृत्ति वाले मेरे पिताजी को मृत्यु के समय कोई कष्ट नहीं हुआ। सहज ही उनकी खुराक कम होती गई। अनाज पचना बन्द हो गया; पीड़ा का, भयंकर पीड़ा का कोई अहसास नहीं हुआ, वे बराबर तत्त्व चिन्तन के प्रति सजग रहे। ___ हमने सभी प्रकार की जाँचें करवाई, पर उन्हें कोई बीमारी थी ही नहीं। बस वे क्रमशः कृष होते गये, ठोस आहार छूटता गया, पेय पदार्थ लेते रहे । क्रमशः पेय पदार्थ भी सहज छूटते गये, मात्र पानी रहा
और अन्त समय में वह भी छूट गया। व अन्त समय तक सजग रहे, तत्त्वचर्चा करते रहे, वेदना के कोई चिह्न नहीं थे। पाँच मिनट पहले ही कुछ बेहोशी सी आई और सहज प्राण निकल गये।
यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि ऐसा है तो इन उपसर्गधारी मुनिराजों की चर्चा क्यों की है; उन पुण्यवालों की चर्चा क्यों नहीं की?
लेखक के दिमाग में यह आया कि कष्ट के प्रसंगों में यह पंक्तियाँ धैर्य बंधायेगी, परन्तु उन्होंने यह नहीं सोचा कि इनसे एक भय का वातावरण भी निर्मित हो सकता है।
सत्यवादी हरिश्चन्द्र नाटक देखकर भीड़ बाहर आ रही थी। एक पत्रकार ने एक पगड़ीधारी सेठजी से पूँछा -
“कैसा लगा नाटक? आपने क्या सीखा इससे?" सेठजी ने अत्यन्त उपेक्षा भाव से कहा -
“सत्य बोलवा में कांई माल (लाभ) नथी । यदि महाराजा हरिश्चन्द्र जैसा सब कुछ गंवाकर दर-दर की ठोकर खाना हो तो सत्य बोलना।"