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आगम के आलोक में - परवशता से कोई कुसंगी आ जाय तो उससे बात करना छोड़ कर मौन होकर रहना । अपने कर्मोदय के आधीन देश-काल के योग्य जो स्थान प्राप्त हुआ हो उसी में रहकर शयन, आसन, अशन करना। जिनशास्त्रों की परमशरण ग्रहण करना, जिनसिद्धान्तों का उपदेश धर्मात्माओं से सुनना । त्याग, संयम, शुभध्यान, भावनाओं को विस्मरण नहीं करना; क्योंकि धर्मात्मा-साधर्मी भी अपने तथा दूसरों के धर्म की पुष्टता चाहते हैं; धर्म की प्रभावना चाहते हुए धर्मोपदेशादि रूप वैयावृत्य में आलसी नहीं होना; त्याग, व्रत, संयम, शुभध्यान, शुभभावना में ही आराधक साधर्मी को लीन करना चाहिये। __ यदि कोई आराधक ज्ञान सहित होकर भी कर्म के तीव्र उदय से तीव्र रोग, क्षुधा, तृषादि परीषह सहन करने में असमर्थ होकर व्रतों की प्रतिज्ञा तोड़ने लगे, अयोग्य वचन भी कहने लगे, रुदनादि रूप विलापरूप आर्त परिणाम हो जायें तो साधर्मी बुद्धिमान पुरुष उसका तिरस्कार नहीं करे, कटुवचन नहीं कहे, कठोर वचन नहीं कहे; क्योंकि वह वेदना से तो दुःखी है ही, बाद में तिरस्कार के व अवज्ञा के वचन सुनकर मानसिक दुःख पाकर दुर्ध्यान करके धर्म से विचलित हो जाये, विपरीत आचरण करने लगे, आत्मघात कर ले। इसलिये आराधक का तिरस्कार करना योग्य नहीं है। ____ उपदेशदाता को बहुत धीरता धारण करके आराधक को स्नेह भरे वचन कहना, मीठे वचन कहना, जो हृदय में प्रवेश कर जायें, जिन्हें सुनते ही समस्त दुःख भूल जाये । करुणारस से भरे उपकारबुद्धि से भरे वचन कहना चाहिये ।”
इसप्रकार मार्गदर्शन देने के उपरान्त वे पंडित सदासुखदासजी सल्लेखना धारण करने वाले को संबोधित करते हैं; उसका महत्त्वपूर्ण अंश इसप्रकार है - १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पृष्ठ-४५० से ४५२