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आगम के आलोक में - पंच नमस्कार का मधुर स्वरों से बड़ी धीरता से श्रवण करावें, जैसे आराधक के निर्बल शरीर में व मस्तक में वचनों से खेद या दुःख उत्पन्न न हो तथा सुनने में चित्त लग जाय उसप्रकार श्रवण करावें।
बहुत आदमी मिलकर कोलाहल नहीं करें, एक-एक साधर्मी अनुक्रम से धर्म श्रवण व जिनेन्द्र नाम स्मरण करावे।
आराधक के निकट बहुत जनों का व सांसारिक ममत्व-मोह की कथा-वार्ता करनेवालों का आगमन रोक देवे । पंच नमस्कार या चार शरण इत्यादि वीतराग कथा सिवाय नजदीक में अन्य कोई चर्चा नहीं करे । दो चार धर्म के धारक सिवाय अन्य का समागम नहीं रहे।" . . उक्त कथन से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि जबतक सल्लेखनाधारी अध्ययन, चिन्तन, मनन, पाठ आदि करने में स्वयं समर्थ है, सक्रिय है; तबतक कोई अन्य कुछ भी सुनाकर उसे डिस्टर्ब न करे; जब वह कमजोरी के कारण यह सब स्वयं करने में समर्थ न रहे; तब अन्य . साधर्मी, जो विद्वान हों, समझदार हों, और स्थितिकरण करने में समर्थ हों; वे उसे कुछ सुनायें, कहें, समझायें; पर एकदम शान्तभाव से। ___ साधक के पास कोलाहल, रोना-धोना, लौकिक वार्ता बिल्कुल नहीं होना चाहिये। ___ भावुक लोग उनके पास न रहें, बाल-बच्चे भी दूर ही रहें। संबंधियों को भी अधिक काल तक निकट न रहने दें।
सल्लेखना की तैयारी और कुछ नहीं; मात्र स्वयं को देहपरिवर्तन के लिए तैयार करना है; वर्तमान के सभी संयोगों के वियोग को खुशी-खुशी स्वीकार करने को तैयार होना है।
जो कुछ सुनिश्चित है, जिस समय जो होना है, वह तो होगा ही; उसे रोकना संभव नहीं है और न उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन भी १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पृष्ठ-४६५