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समाधिमरण या सल्लेखना संभव है और जो कुछ होना है, वह सहज हो ही रहा है। हमें उसमें भी कुछ नहीं करना है । हमें तो सिर्फ सहज रहना हैं, किसी प्रकार की टेंसन (तनाव) नहीं रखना है।
सहज परिवर्तन रूप वस्तुस्वरूप को सहजरूप से स्वीकारना है, सहज ज्ञाता-दृष्टाभाव बनाये रखना है।
देह परिवर्तन, जिसे हम मरण कहते हैं; उसमें कोई दुःख नहीं है। मृत्यु के समय किसी किसी को जो पीड़ा होती देखी जाती है, वह तो किसी बीमारी का परिणाम है। ___ यदि कोई बीमारी नहीं हो तो सहज जंभाई लेते प्राण निकल सकते हैं, छींक आने के काल में देहपरिवर्तन हो सकता है।
जो दुःख की चर्चा होती है, वह तो उपसर्ग की है, दुर्भिक्ष की है, बीमारी की है, बुढ़ापे की है; वह मरण की नहीं। - वह तो आपको भोगनी ही होगी; आप सल्लेखना न लें, तब भी भोगनी होगी, उससे सल्लेखना का कोई संबंध नहीं।
पीड़ा के डर से मरण से घबड़ाने की आवश्यकता नहीं है। मरण की बात न भी हो तो भी तो हम बीमारी का तो उचित उपचार (इलाज) करते ही हैं । सल्लेखना में भी प्रतिकार शब्द से उपचार करने की आज्ञा दी ही गई है। ___ हमें उक्त दुःखों से घबड़ा कर मरना नहीं है, मरण को स्वीकार करना नहीं है । बस बात मात्र इतनी ही है कि यदि मरण हो ही रहा है तो समताभावपूर्वक ज्ञाता-दृष्टा भाव बनाये रखना है। हमें तो सब स्वीकार है - मर रहे हों तो मरना, जी रहे हों तो जीना, हमें किसी भी स्थिति का प्रतिरोध नहीं करना है और न किसी भी स्थिति की मांग करना है।
जब तक जीवन है, तबतक जीने के लिये तो यथायोग्य भोजनादि करना है; पर मरने के लिये कुछ नहीं करना है। मरने के लिये आहार