Book Title: Samadhimaran Ya Sallekhana
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Pandit Todarmal Smarak Trust

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Page 28
________________ २६ आगम के आलोक में - अरे भाई! वर्तमान परिवार व देह को छोड़े बिना तो मुक्ति भी प्राप्त नहीं होती । यदि इसी देह और परिकर से चिपटे रहोगे तो मोक्ष या स्वर्ग कुछ भी नहीं मिलेगा । अतः समझदारी इसी में है कि समाधिमरण के माध्यम से इस ट्रांसफर (देह परिवर्तन के कार्य ) को सहज ही स्वीकार कर लीजिये । ज्ञानी धर्मात्माओं को तो मृत्यु सहज है। कोई बड़ी बात नहीं है । क्योंकि उन्हें तो पक्का भरोसा है कि यदि ये संयोग छूट रहे हैं तो भविष्य में इनसे अच्छे संयोग मिलेंगे। दूसरे उन्हें संयोगों की विशेष चाह भी नहीं है। उनके लिये तो यह परिवर्तन साधारण सी घटना है; परन्तु इस अज्ञानी जगत को इनमें अपनत्व होने से इनके वियोग की कल्पना भी बहुत आकुल-व्याकुल कर देती है। दूसरे अज्ञानीजनों को अपने पुण्य पर भी भरोसा नहीं है। उन्होंने अच्छे भाव रखे ही नहीं तो फिर पुण्य भी आयेगा कहाँ से ? उन्हें लगता है - एकबार ये संयोग छूटे तो न मालूम नरक - निगोद में कहाँ जाना होगा । अतः वे इन्हीं संयोगों से चिपटे रहना चाहते हैं। संयोगों के प्रति अत्यधिक आसक्ति ही मरणभय का मूल कारण है। यदि संयोगों में रंचमात्र भी अपनापन न हो तो फिर आत्मा का गया ही क्या है; क्योंकि आत्मा के असंख्य प्रदेश और अनन्त गुण तो उसके साथ ही जाते हैं। जिन संयोगों के प्रति अपनापन नहीं होता, उनका कुछ भी हुआ करें, हमें कोई अन्तर नहीं पड़ता; परन्तु जिन संयोगों में अपनापन हो जाता है, उनके वियोग में दुख होता है । अतः यह निश्चित हुआ कि पर में अपनापन ही अनन्त दुख का कारण है । वर्तमान संयोग भी हमारे पुण्य-पाप के उदय के अनुसार प्राप्त हुये हैं और अगले भव के संयोग भी हमारे पुण्य-पाप के उदय के अनुसार

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