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आगम के आलोक में - मैंने सहज ही कहा - मुझे एक-दो भव में कोई रुचि नहीं है। जहाँ जाऊँगा, चला जाऊँगा। मुझे इसका कोई विकल्प नहीं है।
सच्ची बात तो यह है कि मुझे किसी भव में रस नहीं है। भव या भव का भाव रस रखने लायक है भी नहीं । इस संसार में कोई भव रहने लायक है क्या? नहीं, तो बात खतम । यह चर्चा तो भव की चर्चा है, भव के अभाव की नहीं। मुझे भव की चर्चा में कोई रस नहीं।
किसी भव की चाह को तो निदान कहते हैं। निदान सल्लेखना के पाँच अतिचारों में गिनाया है। मुझे किसी विशेष संयोग में कोई रस नहीं है। एक बात तो यह है कि मुझे संयोगों में ही रस नहीं है, किसी विशेष संयोग में तो बिल्कुल नहीं। ___ मुझे तो मात्र मुझमें ही रस है, असंयोगी तत्त्व में रस है । सो वह असंयोगी तत्त्व तो मैं ही हूँ। जितना रस संयोगों में रहेगा; उतना रस निज भगवान आत्मा में कम हो जायेगा।
लोग बार-बार जानना चाहते हैं कि जब तक संसार में रहना है, तब तक आप कहाँ रहना पसन्द करेंगे?
पर, भाई! मुझे संसार में रहना ही नहीं है। जहाँ मुझे रहना ही नहीं है; उसके बारे में आप पूछ रहे हैं कि वहाँ आप कहाँ रहना चाहेंगे? ___ मजबूरी में महात्मा गाँधी की सूक्ति के अनुसार मजबूरी में जहाँ रहना होगा, वहीं रह लेंगे । उसमें चाह का क्या सवाल है? ___ मुझे तो मुझ में ही रहना है, मात्र मुझमें ही रहना है। सो मैं मुझमें तो हूँही; उसमें क्या रहना? ___जहाँ तक संयोगों की बात है । सो क्रमबद्धपर्याय और पूर्वकर्मोदय के अनुसार जब जहाँ रहना होगा, सहज भाव से रह लेंगे, उसमें मीनमेख करने की आदत मेरी नहीं है।