Book Title: Samadhimaran Ya Sallekhana
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Pandit Todarmal Smarak Trust

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Page 27
________________ समाधिमरण या सल्लेखना यद्यपि इस भव के सभी संयोग छूट रहे हैं; तथापि अगले भव के सभी संयोग एकदम तैयार हैं। हो सकता है हमारे पुण्य के योग से वे इनसे भी अच्छे हों; पर हमें पता नहीं है न । इसलिये दुःख कुछ ज्यादा ही होता है। यदि हमारा जीवन शुद्ध-सात्विक रहा है, पवित्र रहा है, धर्ममय रहा है तो आगामी संयोग गारन्टी से वर्तमान संयोगों से अच्छे होंगे और इन्हें छोड़े बिना वे मिलेंगे भी नहीं; अतः वर्तमान संयोगों को छोड़ने में संकोच नहीं करना चाहिये । पर एकत्व-ममत्व के कारण हमसे वर्तमान संयोग छोड़े नहीं जाते । ध्यान रहे बिना मरेतो स्वर्ग मिलने वाला है नहीं । यदि स्वर्ग चाहिये तो इन्हें छोड़ने के लिये तैयार रहना ही होगा। उक्त सन्दर्भ में कविवर सूरचन्द्रजी के विचार दृष्टव्य हैं - "मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, इस अवसर के माहीं। जीरन तन से देत नयो यह, या सम साहू नाहीं।। या सेती इस मृत्युसमय पर, उत्सव अति ही कीजै। क्लेश भाव को त्याग सयाने, समताभाव धरीजै। जो तुम पूरव पुण्य किये हैं, तिनको फल सुखदाई। मृत्यु मित्र बिन कौन दिखावै, स्वर्ग संपदा भाई॥ इस अवसर पर मृत्युरूपी मित्र तेरा उपकारी है। जीर्ण-शीर्ण शरीर के बदले एकदम नया शरीर देता है। इसके समान उपकारी साहूकार और कोई नहीं है। इसलिये इस मृत्यु के अवसर पर उत्सव करना चाहिये। क्लेश भाव को त्यागकर समताभाव धारण करना चाहिये। __ पूर्व काल में जो पुण्य आपने किये हैं; उनका सुख देनेवाला फल जो स्वर्ग की सम्पत्ति; वह मृत्यु के बिना कैसे प्राप्त होगी? इसलिये हे भाई! इस मृत्यु को स्वर्ग की सम्पदा दिलाने वाला मित्र समझो।" १. समाधि और सल्लेखना, पृष्ठ-४२

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