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आगम के आलोक में - पहले हम उसे छोड़ने को तैयार हो जावें - इसी में समझदारी है। इस समझदारी का प्रायोगिक रूप ही सल्लेखना है, समाधिमरण है। __उक्त छन्द में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पद निःप्रतिकारे है । यह विशेषण इसके पहले आये चारों पदों में लगाना अनिवार्य है। ___ तात्पर्य यह है कि जिस उपसर्ग को किसी भी स्थिति में दूर करना संभव न हो, जिस अकाल (दुर्भिक्ष) में अहिंसक विधि से जीवनयापन संभव ही न रहा हो, ऐसा बुढ़ापा कि जिसमें सभी इन्द्रियाँ पूर्णतः शिथिल हो गई हों, जीना एकदम पराधीन हो गया हो, ऐसा प्राण घातक रोग कि जिसका कोई इलाज ही न हो; ऐसी स्थिति में ही सल्लेखना धारण की जा सकती है। ___ जिस उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और रोग में जीवन को कोई खतरा न हो, जीवन यापन असंभव न हो; तो सल्लेखना लेना उचित नहीं है। उक्त स्थितियों का अर्थात् उपसर्गादि का उचित प्रतिकार करना चाहिये।
समताभावपूर्वक मरना नहीं; जीना ही उचित है, क्योंकि मरकर जहाँ भी जावोगे, वहाँ आरंभ में तो असंयमी जीवन ही यापन करना होगा। अतः संयम की साधक वर्तमान मनुष्य पर्याय को छोड़ना उचित नहीं है।
उक्त संदर्भ में पण्डित सदासुखदासजी लिखते हैं - ___“यदि धर्म सेवन की सहकारी इस देह को आहार त्याग करके छोड़ देगा तो क्या देव, नारकी, तिर्यंचों की संयम रहित देह से व्रततप-संयम सधेगा?
रत्नत्रय की साधक तो यह मनुष्य देह ही है। जो धर्म की साधक मनुष्य देह को आहारादि त्यागकर छोड़ देता है, उसका क्या कार्य सिद्ध होता है? इस देह को त्यागने से हमारा क्या प्रयोजन सधेगा? - व्रत-धर्म रहित और दूसरा नया शरीर धारण कर लेगा।"