Book Title: Samadhimaran Ya Sallekhana
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Pandit Todarmal Smarak Trust

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Page 11
________________ समाधिमरण या सल्लेखना पण्डित सदासुखदासजी के उक्त कथन में समुचित परिस्थिति आने के पूर्व आहारादि के त्याग का जोर देकर निषेध किया गया है। सागार धर्मामृत में पण्डित आशाधरजी लिखते हैं - "न धर्मसाधनमिति स्थास्नु नाश्यं वपुर्बुधैः । नच केनापिनो रक्ष्यमिति शोच्यं विनश्वरम् ॥५॥ तत्त्वज्ञानी पुरुषों को धर्म का साधन होने से शरीर को नष्ट नहीं करना चाहिये और यदि वह शरीर स्वयं नष्ट होता हो तो शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि मरते हुये को कोई नहीं बचा सकता।" ___ आशाधरजी के उक्त कथन में शरीर को नष्ट नहीं करने का स्पष्ट आदेश दिया गया है। साथ ही यह भी कहा है कि यदि शरीर का नाश हो ही रहा हो तो खेद नहीं करना चाहिये। . अकेले शरीर को कृष करना ही सल्लेखना नहीं है, अपितु शरीर के साथ-साथ कषायों को कृश करना भी आवश्यक है। सम्यक् काय कषाय लेखना सल्लेखना - आचार्य पूज्यपाद के इस कथन के अनुसार शरीर और कषायों को भलीभाँति कृश करना ही सल्लेखना है। सागारधर्मामृत में पण्डित आशाधरजी लिखते हैं - "उपवासादिभिः कायं कषायं च श्रुतामृतैः । . संलिख्य गणमध्ये स्यात् समाधिमरणोद्यमी।।१५।। समाधिमरण के लिए प्रयत्नशील साधक उपवास आदि के द्वारा शरीर को और श्रुतज्ञानरूपी अमृत के द्वारा कषाय को सम्यक् रूप से कृश करके चतुर्विध संघ में उपस्थित होवे । अर्थात् जहाँ चतुर्विध संघ हो वहाँ चला जाये।" १. धर्मामृत सागार, पृष्ठ-३११ २. सर्वार्थसिद्धि अध्याय-७, सूत्र २२ की टीका में समागत ।

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