Book Title: Samadhimaran Ya Sallekhana
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Pandit Todarmal Smarak Trust

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Page 13
________________ समाधिमरण या सल्लेखना "मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता ।। मरणकाल उपस्थित होने पर सल्लेखना (समाधिमरण) व्रत का श्रावकों को प्रीति पूर्वक सेवन करना चाहिए।" ___ उपसर्गादि के होने पर तो सल्लेखना होती ही है। सहज मृत्युकाल उपस्थित होने पर जीवन के अन्त में भी सल्लेखना धारण करना आवश्यक है। आचार्य अमृतचन्द्र देव अपने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय नामक श्रावकाचार में इस बात पर विशेष बल देते हैं कि यह सल्लेखना नामक व्रत ही एक ऐसा व्रत है कि जो तेरे धर्मरूपी धन को अगले भव में ले जावेगा। यद्यपि यह सल्लेखना नामक व्रत जीवन के अन्त में लिया जाता है; तथापि इस व्रत को लेने की भावना बहुत पहले से रखी जा सकती है और रखी जानी चाहिये। ____ अतः यह न केवल मृत्यु को सुगंधित करने वाला व्रत (कार्य) है, परन्तु यह जीवन को भी भावना के बल पर सुगन्धित कर देता है। उक्त कथन करने वाले छन्द मूलतः इसप्रकार हैं - "इयमेकैव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम् । सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या। मरणान्तेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि। इति भावनापरिणतोऽनागतमपि पालयेदिदंशीलम्॥ यह सल्लेखना ही एकमात्र ऐसा व्रत है, जो मेरे धर्म को अगले भव में ले जाने में समर्थ है; अतः निरन्तर इसकी भावना करना चाहिये। __ मैं मरण के समय अवश्य ही सल्लेखना धारण करूँगा - ऐसी भावना रखकर ज्ञानी जीवमरणसमय के पहले ही इस व्रत का लाभलेलेता है।" १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय-७, सूत्र २२ २. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय छन्द-१७५-१७६

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