Book Title: Samadhimaran Ya Sallekhana
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Pandit Todarmal Smarak Trust

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Page 17
________________ समाधिमरण या सल्लेखना २. मरणाशंसा - रोगादि के कष्ट से घबड़ा कर जल्दी मरने की इच्छा होना, मरणाशंसा नामक दूसरा अतिचार है। वैसे तो प्रत्येक आत्मार्थी मुमुक्षु भाई-बहिन की भावना ऐसी होना चाहिए या होती है कि - “लाखों वर्षों तक जीऊँ या मृत्यु आज ही आ जावे।" सल्लेखना लेनेवाले को तत्काल मरने और अपरिमित काल तक जीने के लिए तैयार रहना ही चाहिए। ३. मित्रानुराग - मित्रों के साथ अनुराग होना, उन्हें बार-बार याद करना, मित्रानुराग नामक तीसरा अतिचार है। ४. सुखानुबंध - भोगे हुए सुखों (भोगों) को याद करना, सुखानुबंध नामक चौथा अतिचार है। ५. निदान - आगे के भोगों की चाह होना, निदान नामक पाँचवाँ अतिचार है। ये सल्लेखना व्रत के पाँच अतिचार हैं। इन्हें जानकर तत्त्व चिन्तन के माध्यम से इनसे बचने का प्रयास करना चाहिये। यह सल्लेखना व्रत तो व्रतियों का है - यह सोचकर अव्रतियों को इससे विरक्त नहीं होना चाहिये। उन्हें अपनी शक्ति के अनुसार इसका पालन करना ही चाहिये। मृत्यु को बलात् आमंत्रण देने का नाम समाधिमरण नहीं है। धर्मपालन करने की दृष्टि से सर्वोत्तम मानवजीवन को यों ही बलिदान कर देने का नाम धर्म नहीं है। धर्म तो स्वयं को जानना है, पहिचानना है; स्वयं को जानकर, पहिचानकर स्वयं में अपनापन स्थापित करने का नाम है; स्वयं में ही समा जाने का नाम है, समाधिस्थ हो जाने नाम है। १. जुगलकिशोरजी मुख्त्यार : मेरी भावना, छन्द ७

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