________________
आगम के आलोक में - उक्त छन्द में शरीर को कृश करने का उपाय उपवास आदि को और कषायों को कृश करने का उपाय श्रुताभ्यास (स्वाध्याय) को बताया है साथ में चतुर्विध (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) संघ के सत्समागम में रहने को कहा है।
इससे यह स्पष्ट है कि - यह सब कथन घर में रहनेवाले व्रती श्रावकों का ही है।
"जन्ममृत्युजरातङ्काः कायस्यैव न जातु मे।
न च कोऽपि भवत्येष ममेत्यङ्गेऽस्तु निर्ममः॥ जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और रोग शरीर में ही होते हैं, मुझ (आत्मा) में नहीं । अतः मुझे इस शरीर में निर्मम होना चाहिये।
पिण्डो जात्याऽपि नाम्नाऽपि समो युक्त्याऽपि योजितः । पिण्डोऽस्ति स्वार्थनाशार्थो यदा तं हापयेत्तदा।। पिण्ड शरीर को भी कहते हैं और भोजन को भी। इसप्रकार शरीर और भोजन में जाति और नाम दोनों से समानता है; फिर भी आश्चर्य है कि अबतक शरीर को लाभ पहुँचाने वाला भोजन, अब शरीर को हानि पहुँचाता है; इसलिये भोजन का त्याग ही उचित है।"
उक्त कथन से अत्यन्त स्पष्ट है कि जब भोजन शरीर को पोषण न देकर शरीर का शोषण करने लगे, शरीर को नुकसान पहुँचाने लगे; तब उसका त्याग करना चाहिये। ___ ध्यान रहे यहाँ यह कहा जा रहा है कि जब भोजन शरीर को नुकसान पहुँचाने लगे, उसका त्याग तब करना चाहिये। ___ महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में भी आचार्य उमास्वामी ने अणुव्रतधारी श्रावकों को मुख्यरूप से व अन्य मुमुक्षु भाई-बहिनों को गौणरूप से आदेश दिया है, उपदेश दिया है कि
१. धर्मामृत (सागार) आठवाँ अध्याय, छन्द १३ २. वही, छन्द १४