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ॐ
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* श्री जिनाय नमः
ये पत्र स्व० उदासीन ब्र० मौजीलालजी सागर निवासी वालों के समाधिलाभार्थ उनके प्रत्युत्तर में पूज्य पं० गणेशप्रशादजी वर्णी के द्वारा लिखे गये हैं। एक एक पंक्ति में आत्मरसिकता झलक रही है । अतः जब कभी मन स्थिर हो शान्तिपूर्वक प्रत्येक वाक्य का परिशीलन करके उसके मंतव्य को हृदयंगत करना चाहिये । ( पत्र नहीं, ये मोक्षमार्ग में प्रवेश करने के लिये वास्तविक रत्न हैं ।)
पत्र नं. १
योग्य शिष्टाचार !
सत्यदान तो लोभ का त्याग है । और उसको मैं चारित्र का अंश मानता हूं । मूर्छा की
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