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( २८ ) बुद्धिपूर्वक स्वयं त्याग रहे हैं। मेरी तो यही भावना है- प्रभु पार्श्वनाथ आपकी आत्माको इस बंधन के तोड़ने में अपूर्व सामर्थ्य दें। आपके पत्र से आपके भावों की निर्मलता का अनुमान होता है । स्वतंत्र भाव ही आत्म कल्याण का मूल मंत्र है। क्योंकि आत्मा वास्तविक दृष्टि से तो सदा शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव वाला है। कर्म कलंक से ही मलीन हो रहा है। सो इसके पृथक् करने की जो विधि है उस पर आप आरूढ़ हैं। बाह्य क्रिया की त्रुटि अात्म परिणाम का बाधक नहीं और न मानना ही चाहिये । सम्यग्दृष्टि जो निन्दा तथा गर्दा करता, वह अशुद्धोपयोग की है न कि मन, वचन, काय के व्यापार की। इस पर्याय में हमारा आपका तभी संबंध हो । परंतु मुझे अभी विश्वास है कि हम और आप जन्मान्तर में अवश्य मिलेंगे। अपने स्वास्थ्य संबंधी समाचार अवश्य एक मास में १ वार दिया करेंमेरी आपके भाई से दर्शन विशुद्धि ।
चैत्र सुदी १ संवत् १९९३
प्रा. शु. चिं. गणेशप्रसाद वर्णी
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