Book Title: Samadhi Maran Patra Punj
Author(s): Kasturchand Nayak
Publisher: Kasturchand Nayak

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Page 44
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३१ ) मानलेते। विकारज परिणति को प्रथक् करना अप्रशस्त नहीं, अप्रशस्तता तो यदि हम उसी का निरंतर चितवन करते रहें और निजत्व को विस्मरण हो जावें तब है। अतः जितनी भी अनिष्ट सामग्री मिले, मिलने दो। उसके प्रति आदर भाव से व्यवहार कर ऋण मोचन पुरुष की तरह आनंद से साधु की तरह प्रस्थान करना चाहिये । निदान को छोड़कर आतंभय षष्ठम् गुणस्थान तक होते हैं। दूसरे क्या वह गुणस्थान पलायमान हो गया। थोड़े समय तक अर्जित कर्म आया, फल देकर चला गया। अच्छा हुआ आकर हलकापन कर गया । रोग का निकलना ही अच्छा है। मेरी सम्मति में निकलना, रहने की अपेक्षा प्रशस्त है। इसी प्रकार आपकी असाता यदि शरीर की जीर्ण शीर्ण अवस्था कर निकल रही है तब आप को बहुत ही आनंद मानना चाहिये । अन्यथा यदि वह अभी न निकलती। तब क्या स्वर्ग में निकलती? मेरी दृष्टि में केवल असाता ही नहीं निकल रही साथ ही मोह की अरति आदि प्रकृतियां भी निकल रही हैं। क्योंकि आप इस असाता को सुख पूर्वक भोग रहे हैं। शांति पूर्वक कर्मों के रस को भोगना आगामी दुखकर नहीं। For Private and Personal Use Only

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