________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वह केवल जीव की नहीं किन्तु पौद्गल मोह के उदय से आत्मा के चारित्र गुण में विकार होता है। अतः हमें यह न समझना चाहिये कि हमारी इस में क्या क्षति है ? क्षति तो यह हुई जो श्रात्मा की वास्तविक परिणति थी वह विकलता को प्राप्त हो गई । वही तो क्षति है । परमार्थ से क्षति का यह आशय है कि प्रात्मा में रागादिक दोष हो जाते हैं वह न होवें । तब जो उन दोषों के निमित्त से यह जीव किसी पदार्थ में अनुकूलता और किसी में प्रतिकूलता की कल्पना करता था और उनके परिणमन द्वारा हर्ष विषाद कर वास्तविक निराकुलता (सुख) के अभाव में आकुलित रहता था । शान्ति के प्रास्वाद की कणिका को भी नहीं पाता था। अब उन रागादिक दोषों के असद्भाव में आत्मगुण चारित्र की स्थिति अकम्प और निर्मल हो जाती है। उसके निर्मल निमित्त को अवलम्बन कर आत्मा का चेतना नामक गुण है वह स्वयमेव दृश्य और ज्ञेय पदार्थों का तद्रूप हो दृष्टा और ज्ञाता शक्तिशाली होकर आगामी अनन्त काल स्वाभाविक परिणमनशाली अाकाशादिवत् अकंप रहता है। इसी का नाम भाव मुक्ति है। अब आत्मा में मोह निमित्तक जो कलुषता थी वह
For Private and Personal Use Only