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( १९ ) तरह है। अतः जिन जीवों को मोक्ष रुचता है उनका यही मुख्य ध्येय होना चाहिये कि जो अभिलाषाओं के उत्पादक चरणानुयोगों की पद्धति प्रतिपादित साधनों की ओर लक्ष्य स्थिर कर निरंतर स्वात्मोत्थ सुखामृत के अभिलाषी होकर रागादि शत्रुओं की प्रबल सेना का विध्वंस करने में भागीरथ प्रयत्न कर जन्म सार्थक किया जावे किन्तु व्यर्थ न जावे इसमें यत्नपर होना चाहिये । कहांतक प्रयत्न करना उचित है ? जहांतक पूर्ण ज्ञान की पूर्णता न होय । “ तावदेव भेद विज्ञान मिदमच्छिन्न धारया । यावत्तावत्पराव्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठितम् ॥” (अर्थ-तब तक ही यह भेद विज्ञान अखंडधारा से है कि जब तक परद्रव्य से रहित होकर ज्ञान ज्ञानमें (अपने स्वरूपमें) ठहरता है।
क्योंकि सिद्धि का मूलमंत्र भेद विज्ञान ही है। वही श्री आत्मतत्व रसास्वादी अमृतचंद्र सूरिने कहा है“भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन ॥ तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥"
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