Book Title: Rushimandalsavyantralekhanam
Author(s): Sinhtilaksuri, Tattvanandvijay
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 4
________________ निवेदन अनन्य प्रतिभाने लीधे जैन मन्त्रसाहित्यमां तद्दन नोखा तरी आवता चौदमी शताब्दीना समर्थ मांत्रिक आचार्य श्रीसिंहतिलकसूरिनी आ अद्भुत कृति रजू करतां स्वाभाविक रीते ज हर्ष थाय। वळी, अत्यारसुधी अप्रकट एवी आ प्रभावशाळी कृति सौथी प्रथम वार प्रकट करवानुं मान श्री जैन साहित्य विकास मंडळने प्राप्त थाय छे ए बीना सविशेष आनंददायक छ। चार हस्तलिखित प्रतोने आधारे प्रस्तुत स्तवनुं संशोधन करवामां आव्युं छे:-(१) स्व. श्री. मोहनलाल भगवानदास झवेरीना संग्रहमांनी प्रत (२) भांडारकर ओरीएन्टल रिसर्च इन्स्टिटयूट, पूनाना संग्रहमांनी ३२३, A १८८२-८३ नंबरनी प्रत (३) बुहारीवाळा शेठ श्री. झवेरचंद पन्नाजीना संग्रहमांनी प्रत अने (४) पू. मुनिवर्य श्री. यशोविजयजी महाराज पासेथी प्राप्त थयेल प्रत-आ चारेमांथी एके प्रत संपूर्ण शुद्ध न हती अने तेथी तेमां कोई कोई स्थळे भाषानी दृष्टिए जरूरी सुधारा करवा पड्या छ । 'ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखन'-कृतिने अपायेल आ शीर्षक परथी एटलुं स्पष्ट सूचन मळे छे के आ स्तवमा अतिप्राचीन समयथी पूजाता आवता 'ऋषिमण्डलयन्त्र'- यथार्थ आलेखन करवान मुख्य दृष्टिबिन्दु छे। एटले स्तवनो संपूर्ण अभ्यास करतां तुरत मालूम पडे छे के कुल छत्रीश श्लोकोमांथी लगभग एक तृतीयांश भागना श्लोको 'यन्त्रालेखन 'नो चोक्कस आम्नाय निर्णीत करवा माटे रचवामां आव्या छ । आम, प्राचीन वृहद् ऋषिमण्डलस्तोत्रने आधारे रचायेल अनेकविध ऋषिमण्डलयन्त्रो अने हीकारयन्त्रोमां प्रवर्ती रहेल विभिन्नतानो समन्वय करी चोकस प्रणालिका निश्चित करती आ कृतिनी सौथी विशेष नोंधपात्र विशिष्टता ए छे के ते अनेक गूचवणोनो उकेल लावे छे। तत्कालीन अनेक आम्नायोमाथी स्वानुभवने बळे पोताने अनुकरणीय जणायेल आम्नायनी तेमणे समन्वयदृष्टिपूर्वक भव्य रजूआत करी छ। समन्वय साधवाना शुभ हेतुथी रजू थयेल उपर्युक्त 'यन्त्रालेखन' उपरांत आ स्तवमां आपणुं ध्यान खेंचे एवी बीजी त्रणेक विशिष्टताओ छेः-आ कृतिना पदेपदमा रहेलुं 'लाघव' सौथी प्रथम आपणी दृष्टि समक्ष तरी आवे छे। थोडामां वधु कही देवानी कला एक महान कला छे अने सरस्वतीना एकनिष्ठ उपासक कोई समर्थ प्रतिभासंपन्न साहित्यस्वामीने ज ते हस्तगत थयेली होय छ। शब्द तो शुं परंतु एक मात्रा पण अधिक न लखाई जाय एटली सावधानतापूर्वकनी चीवट खास करीने मंत्रसाहित्यमा आवश्यक छ अने एवी चीवटने कारणे आवेली अर्थघनतानो आपणने आ स्तवमा अनुभव थाय छे। ऋषिमण्डलस्तोत्रकारे तीर्थकरोनी प्रभाना महिमा माटे ३१ थी ७६ श्लोकोनो विस्तार आप्यो छे; तेने श्रीसिंहतिलकसूरिए मात्र एक ज श्लोकमां संग्रही लीधो छ । एवो संग्रह केटलेय स्थळे जोवाय छे अने ऋषिमण्डलस्तोत्रमांथी तारवीने नीचे नोंघेल तुलनात्मक श्लोको परथी ए बाबतनो तुरत ख्याल आवे छे। आवी 'लघुकरण' शक्तिने कारणे ज ९८ श्लोक प्रमाणना बृहद् ऋषिमण्डलस्तोत्रने तथा तेने आधारे रचायेल दिगंबर जैनाचार्य श्रीविद्याभूषणसूरिकृत ८५ लोक प्रमाणना ऋषिमण्डलस्तोत्रने श्रीसिंहतिलकसूरि मात्र ३६ श्लोकमां समाविष्ट करी शक्या छे। ट्रंकमां, श्रीसिंहतिलकसूरिए एकएक पद तोळीने मूक्यु छे अने ते अर्थगौरवथी अन्वित छ। बीजी विशिष्टता ए छे के 'ही' कारमा चोवीश तीर्थंकरोनी स्थापना उपरांत श्रीसिंहतिलकसूरि तेमां पंचपरमेष्ठिनी स्थापनानो पण निर्देश करे छे। 'परमेष्ठिविद्यास्तवयन्त्र' अने 'मन्त्रराजरहस्य' नामना तेमना अन्य ग्रंथोमां आ ज हकीकतनुं विशेष समर्थन करेलु जोवामां आवे छे। 'ही'कारनं सात अवयवमां जे विश्लेषण रजू करवामां आव्यु छे एवं स्पष्ट विश्लेषण आ स्तव सिवाय बीजे क्यांय जोवामां आव्यु नथी; अने ते एनी त्रीजी नोधपात्र विशिष्टता छ। नाद, बिंदु, कला, शीर्षक अने दीर्घकलारूप 'ही' कारना अंशो पर अद्भुत प्रकाश पाडवामां आव्यो छ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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