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श्रीसिंहतिलकसूरिरचितं ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्
अनुवादक-संयोजक: पंन्यास श्री. धुरंधरविजयजी गणिवर्य
संयोधक: मुनिवर्य श्री. तत्त्वानंदविजयजी
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प्रयोजक-विवेचक: शेठ श्री. अमृतलाल कालिदास दोशी, बी.ए.
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प्रकाशकः श्री. नवीनचंद्र अंबालाल शाह, एम्. ए. मंत्री, जैन साहित्य विकास मण्डल
विलेपारले, मुंबई-५७
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श्रीसिंहतिलकसूरिरचितं ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्
(अनुवाद तथा भावार्थ सहित)
अनुवादक-संयोजक : पंन्यास श्री. धुरंधरविजयजी गणिवर्य
. संशोधक: मुनिवर्य श्री. तत्त्वानंदविजयजी
प्रयोजक-विवेचक : शेठ श्री. अमृतलाल कालिदास दोशी, बी. ए.
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मंडल
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प्रकाशक: श्री. नवीनचन्द्र अंबालाल शाह, एम्. ए. मंत्री, जैन साहित्य विकास मण्डल
विलेपारले, मुंबई-५७
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प्रकाशक: नवीनचन्द्र अंबालाल शाह, एम्. ए. मंत्री, जैन साहित्य विकास मण्डल ११२, घोडबंदर रोड; इरलाबीज विलेपारले, मुंबई-५७
प्रथम आवृत्ति १००० ईस्वीसन १९६१ विक्रम संवत् २०१७ मूल्य : रु.३%2००
मुद्रक: वि. पु. भागवत मौज प्रिंटिंग ब्यूरो खटाउ मकनजी वाडी गिरगांव, मुंबई-४
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निवेदन
अनन्य प्रतिभाने लीधे जैन मन्त्रसाहित्यमां तद्दन नोखा तरी आवता चौदमी शताब्दीना समर्थ मांत्रिक आचार्य श्रीसिंहतिलकसूरिनी आ अद्भुत कृति रजू करतां स्वाभाविक रीते ज हर्ष थाय। वळी, अत्यारसुधी अप्रकट एवी आ प्रभावशाळी कृति सौथी प्रथम वार प्रकट करवानुं मान श्री जैन साहित्य विकास मंडळने प्राप्त थाय छे ए बीना सविशेष आनंददायक छ।
चार हस्तलिखित प्रतोने आधारे प्रस्तुत स्तवनुं संशोधन करवामां आव्युं छे:-(१) स्व. श्री. मोहनलाल भगवानदास झवेरीना संग्रहमांनी प्रत (२) भांडारकर ओरीएन्टल रिसर्च इन्स्टिटयूट, पूनाना संग्रहमांनी ३२३, A १८८२-८३ नंबरनी प्रत (३) बुहारीवाळा शेठ श्री. झवेरचंद पन्नाजीना संग्रहमांनी प्रत अने (४) पू. मुनिवर्य श्री. यशोविजयजी महाराज पासेथी प्राप्त थयेल प्रत-आ चारेमांथी एके प्रत संपूर्ण शुद्ध न हती अने तेथी तेमां कोई कोई स्थळे भाषानी दृष्टिए जरूरी सुधारा करवा पड्या छ ।
'ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखन'-कृतिने अपायेल आ शीर्षक परथी एटलुं स्पष्ट सूचन मळे छे के आ स्तवमा अतिप्राचीन समयथी पूजाता आवता 'ऋषिमण्डलयन्त्र'- यथार्थ आलेखन करवान मुख्य दृष्टिबिन्दु छे। एटले स्तवनो संपूर्ण अभ्यास करतां तुरत मालूम पडे छे के कुल छत्रीश श्लोकोमांथी लगभग एक तृतीयांश भागना श्लोको 'यन्त्रालेखन 'नो चोक्कस आम्नाय निर्णीत करवा माटे रचवामां आव्या छ । आम, प्राचीन वृहद् ऋषिमण्डलस्तोत्रने आधारे रचायेल अनेकविध ऋषिमण्डलयन्त्रो अने हीकारयन्त्रोमां प्रवर्ती रहेल विभिन्नतानो समन्वय करी चोकस प्रणालिका निश्चित करती आ कृतिनी सौथी विशेष नोंधपात्र विशिष्टता ए छे के ते अनेक गूचवणोनो उकेल लावे छे। तत्कालीन अनेक आम्नायोमाथी स्वानुभवने बळे पोताने अनुकरणीय जणायेल आम्नायनी तेमणे समन्वयदृष्टिपूर्वक भव्य रजूआत करी छ।
समन्वय साधवाना शुभ हेतुथी रजू थयेल उपर्युक्त 'यन्त्रालेखन' उपरांत आ स्तवमां आपणुं ध्यान खेंचे एवी बीजी त्रणेक विशिष्टताओ छेः-आ कृतिना पदेपदमा रहेलुं 'लाघव' सौथी प्रथम आपणी दृष्टि समक्ष तरी आवे छे। थोडामां वधु कही देवानी कला एक महान कला छे अने सरस्वतीना एकनिष्ठ उपासक कोई समर्थ प्रतिभासंपन्न साहित्यस्वामीने ज ते हस्तगत थयेली होय छ। शब्द तो शुं परंतु एक मात्रा पण अधिक न लखाई जाय एटली सावधानतापूर्वकनी चीवट खास करीने मंत्रसाहित्यमा आवश्यक छ अने एवी चीवटने कारणे आवेली अर्थघनतानो आपणने आ स्तवमा अनुभव थाय छे। ऋषिमण्डलस्तोत्रकारे तीर्थकरोनी प्रभाना महिमा माटे ३१ थी ७६ श्लोकोनो विस्तार आप्यो छे; तेने श्रीसिंहतिलकसूरिए मात्र एक ज श्लोकमां संग्रही लीधो छ । एवो संग्रह केटलेय स्थळे जोवाय छे अने ऋषिमण्डलस्तोत्रमांथी तारवीने नीचे नोंघेल तुलनात्मक श्लोको परथी ए बाबतनो तुरत ख्याल आवे छे। आवी 'लघुकरण' शक्तिने कारणे ज ९८ श्लोक प्रमाणना बृहद् ऋषिमण्डलस्तोत्रने तथा तेने आधारे रचायेल दिगंबर जैनाचार्य श्रीविद्याभूषणसूरिकृत ८५ लोक प्रमाणना ऋषिमण्डलस्तोत्रने श्रीसिंहतिलकसूरि मात्र ३६ श्लोकमां समाविष्ट करी शक्या छे। ट्रंकमां, श्रीसिंहतिलकसूरिए एकएक पद तोळीने मूक्यु छे अने ते अर्थगौरवथी अन्वित छ।
बीजी विशिष्टता ए छे के 'ही' कारमा चोवीश तीर्थंकरोनी स्थापना उपरांत श्रीसिंहतिलकसूरि तेमां पंचपरमेष्ठिनी स्थापनानो पण निर्देश करे छे। 'परमेष्ठिविद्यास्तवयन्त्र' अने 'मन्त्रराजरहस्य' नामना तेमना अन्य ग्रंथोमां आ ज हकीकतनुं विशेष समर्थन करेलु जोवामां आवे छे।
'ही'कारनं सात अवयवमां जे विश्लेषण रजू करवामां आव्यु छे एवं स्पष्ट विश्लेषण आ स्तव सिवाय बीजे क्यांय जोवामां आव्यु नथी; अने ते एनी त्रीजी नोधपात्र विशिष्टता छ। नाद, बिंदु, कला, शीर्षक अने दीर्घकलारूप 'ही' कारना अंशो पर अद्भुत प्रकाश पाडवामां आव्यो छ ।
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निवेदन
आवी अनेक विशिष्टताओ तथा लाक्षणिकताओयुक्त आ दिव्य कृतिने बहार लाववा माटे संस्थाना माननीय प्रमुख शेठ श्री. अमृतलालभाईए करेल प्रयासो खास नोंध मागी ले छे। तेओश्रीए आ कृतिनुं अनेकवार वाचन, विश्लेषण अने विचिन्तन कयु छ; अने हवे पछी पृष्ठ १० उपर तेओश्रीए रजू करेल 'सारांश दर्शन' तथा समस्त कृतिमाथी लगभग प्रत्येक उपयोगी शब्दनो (कुल संख्या = ८४) रजू करेल शब्दार्थ-भावार्थ वांचतां आ हकीकत स्पष्ट थशे । आ स्तवनी नकल तेमना जोवामां आवतां तुरत ज तेनी उपयोगितानो तेमने ख्याल आव्यो अने ते लईने तेओश्री पू. पंन्यास श्रीधुरंधरविजयजी गणिवर्य पासे गया। एक महत्त्वना सीमाचिह्नरूप बनी रहे एवी आ अमूल्य कृतिने वांचतां पू. पंन्यासजीने पण अपूर्व आनंद थयो अने तेओश्रीए तेनो अनुवाद करी आपवानी जवाबदारी पोताने शिर स्वीकारी। ते अनुसार अहीं प्रकट करेल अनुवादने लक्ष्यमा राखी शेठ श्री. अमृतलालभाईए प्रत्येक उपयोगी शब्द लई ते पर ढूंको छतां सचोट शब्दार्थ तथा भावार्थ लख्यो; अने तेमां पण पू. पंन्यासजीए जरूरी सहकार अर्यो। तदुपरांत अमारी विज्ञप्तिने मान आपी 'अग्रवचन' लखी आपवा द्वारा तेमज श्रीसिंहतिलकसूरिए निर्दिष्ट करेल आम्नायने अनुलक्षीने 'ऋषिमण्डलयन्त्र'नुं संशोधन करवा द्वारा आ ग्रंथनी उपयोगिता अनेकगणी वधारी। आम, आ कृतिना प्रकाशनमां पू. पंन्यास श्रीधुरंधरविजयजी गणिवर्ये खूब परिश्रम लीधो छ। पोताना गुरु (संसारी पिताजी) पूज्य मुनिवर्य श्रीपुण्यविजयजी महाराजसाहेबनी सतत मांदगी होवा छतां अने ते कारणे तेमनो घणो समय तेओश्रीनी शुश्रूषामां व्यतीत थतो होवा छतां तेम ज पोते क्रियाकांडनी तथा साहित्य अने संशोधननी अनेकविध प्रवृत्तिओमा उद्यमी रहेवा छतां किंमती समयनो भोग आपी तेओश्रीए जे उपकार को छे तेनुं ऋण फेडी शकाय एम नथी। तेओश्रीना आ उपकार बदल संस्था तरफथी तथा संस्थाना माननीय प्रमुख शेठ श्री. अमृतलालभाई तरफथी भावभीनो आभार मानी पूज्यभाव व्यक्त करीए छीए।
अनुवाद आदिमां पूज्य पंन्यासजीए जेवो उमळकापूर्वक सहकार आप्यो तेवो ज नोंधपात्र सहकार भावार्थ वगेरे साद्यंत वांची जई तेने घटित सूचनो द्वारा व्यवस्थित करी आपवामां पूज्य मुनिवर्य श्री. तत्त्वानंदविजयजीए अर्यो । अमारी विनंतीने मान आपी सिद्धान्तमहोदधि प. पू. आचार्य श्री. विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजसाहेबनी आज्ञा मळतां पू. मुनि श्रीतत्त्वानंदविजयजीए आ संशोधनकार्य त्वरितपणे तथा अति चीवटपूर्वक पार पाड्युं अने तेमां ज्यारे त्यारे आवश्यकता जणाई त्यारे त्यारे तेओश्रीए पू. पंन्यास श्री. भद्रकरविजयजी गणिवर्य अने पू. पंन्यास श्री. भानुविजयजी गणिवर्यनी सहाय मेळवी। आ सर्व गुरुवर्योना अमे अत्यंत ऋणी छीए।
अहीं एक खास नोंध लेवानी के संस्था तरफथी हाल मुद्रित थई रहेल 'नमस्कार स्वाध्याय' (संस्कृत विभाग) मां 'ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखन'नी आ कृतिनो समावेश करवामां आव्यो छे, तेम छतां तेना विशिष्ट, माहात्म्यने लीधे अने अनेक मुमुक्षु भाईओने खूब उपकारक थाय ए दृष्टिए तेने अलग मुद्रित करी समाज समक्ष मूकीए छीए । आ स्तव उपरांत आचार्य श्रीसिंहतिलकसूरिए 'मंत्रराजरहस्य', 'परमेष्ठिविद्यायन्त्र', 'वर्धमानविद्याकल्प', 'लघुनमस्कारचक्र', 'सूरिपदप्रतिष्ठा' आदि यन्त्रमन्त्रविषयक तथा मन्त्रगर्भित अनेक ग्रंथो रच्या छे। ते ग्रंथोमांथी पंचपरमेष्ठिविषयक संदर्भो तारवीने हवे पछी ढूंक समयमां प्रकट थनार उपर्युक्त 'नमस्कार स्वाध्याय' (संस्कृत विभाग) मां अनुवादसहित संपादित करवामां आव्या छे।।
आ पुस्तिकानी साथे संस्थाए तैयार करावेल 'ऋषिमण्डलयन्त्र'नुं चाररंगी चित्र* पण आपवामां आवे छे। श्रीसिंहतिलकसूरिए निर्दिष्ट करेल आम्नायने मुख्यत्वे ध्यानमा राखीने दोरायेल आ भव्य चित्र अतीव प्रभावक बनी शक्युं छे। आ यन्त्रनुं कागळ पर आलेखन करावता पहेलां प्राप्त थई शक्यां एटलां अनेक प्राचीन-अर्वाचीन ऋषिमण्डलयन्त्रो एकत्रित करवामां आव्यां हतां। पूज्य मुनिवर्य श्री. यशोविजयजी महाराजसाहेबे तथा पू. मुनिश्री पुण्य
* 'ऋषिमंडल'ना आ चाररंगी यन्त्र-चित्रनी किंमत एक रुपियो राखवामां आवी छे अने प्रस्तुत पुस्तकनी किंमतमा तेनो समावेश थतो नथी।
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निवेदन
विजयजी महाराजसाहेबे संख्याबंध यन्त्रो आपीने तथा मेळवी आपीने अमारा आ कार्यने अतीव सरळ बनान्युं हतुं । तेओोश्रीनी आ सहाय बदल जेटलो उपकार मानीए एटलो ओछो छे । आ अपूर्व यन्त्र-चित्रने तैयार करवामां तेना ब्लॉको बनाववामां अने त्यारबाद तेने सुंदर स्वरूपमां मुद्रित करवा पाछळ संस्थाए सारा एवा खर्चनी जवाबदारी लीवी हती । तेने उत्कृष्ट रीते दोरी आपवा बदल डभोईना निपुण चित्रकार श्री. रमणीकभाईनो तथा तेना ब्लॉको कुराळतापूर्वक तैयार करी आपा बदल प्रेस प्रोसेस स्टुडीओनो अने तेने आकर्षक स्वरूपमां मुद्रित करी आपवा बदल मौज प्रिंटिंग प्रेसना प्रोप्राईटर श्री. वि. पी. भागवतनो अत्यंत हार्दिक आभार मानीए छीए ।
उपर्युक्त 'ऋषिमण्डलयन्त्र' ना चित्र नीचे गणधरो, लब्धिओ, देवीओ, यक्षो, यक्षिणीओ आदिनां नाम प्रणालिका अनुसार लखवामां आव्यां छे अने ते नामो आ कृतिने अंते अगियार परिशिष्टो रूपे आप्यां छे ।
परिशिष्टो बाद 'ऋषिमण्डल 'नी ट्रंकी ' यन्त्रालेखनविधि' आपवामां आवी छे। अमदावादना संवेगीना उपाश्रयमांथी प्राप्त थयेल एक हस्तलिखित प्रत परथी आ विधिनी नकल करवामां आवी छे । आ विधि अने त्यारबाद ग्रंथने अंते आपेल 'शब्दसूचि ' अभ्यासीओने उपयोगी थई पडशे ।
आ ग्रंथना संपादन अने प्रकाशनमां प्रमाद आदिना कारणे जो कोई त्रुटिओ रही जवा पामी होय तो ते माटे अमे चतुर्विधसंघनी अंतःकरणपूर्वक क्षमा मागीए छीए अने यन्त्रना उपासको अने अभ्यासीओने विज्ञप्ति करीए छीए के तेणे कृपा करी ते विषे अमने उदारभावे लखी जणाववुं; एटले बीजी आवृत्तिमां ए सुधारी लई शकाय ।
भाद्रपद सुद १, वि. सं. २०१७ सोमवार, ता. ११-९-१९६१ विलेपारले, मुंबई ५७
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लि. सेवक
नवीनचन्द्र अंबालाल शाह, एम्. ए. मंत्री, जैन साहित्य विकास मण्डल
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अग्रवचन
यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र
कोईपण विशिष्ट यन्त्रनुं ज्ञान मेळवता पहेलां यन्त्र, मन्त्र भने तन्त्र ए त्रणे शब्दोनी सामान्य समज होवी जरूरी छे; कारण के विशिष्ट अनुष्ठानोमां आ त्रणेनी एकवाक्यता सधाय छे । यन्त्रज्ञाननी साथे ते ते यन्त्रने अनुरूप मन्त्र अने तन्त्रनुं विधिज्ञान अनिवार्य बनी रहे छे । यन्त्रमां मुख्यत्वे आलेखननुं महत्त्व छे, मन्त्रमां अक्षरसंयोजना तथा जाप महत्त्वनी बाबतो छे अने तन्त्रमां पूजन- द्रव्यो तथा विधि अगत्यनुं स्थान भोगवे छे। आ यन्त्र, मन्त्र अने तन्त्र हंमेशां सात्त्विक ज होय एवं नथी, असात्त्विक पण होय छे अने तेनी साधना पण सात्त्विक करतां सरळताथी थाय छे; परंतु परिणामे तेवी साधना दुःखद नीवडे छे। एटले यन्त्र, मन्त्र भने तन्त्रनी उपासना विवेकबुद्धिपूर्वक थाय तो ज ए श्रेयस्कर बने छे ।
rat प्रकट करेल ऋषिमण्डलयन्त्रमां यन्त्रनुं आलेखन मुख्य होवा छतां मन्त्र अने तन्त्रनो पण यथोचित निर्देश छे; अने ते बेने बाजु पर मूकी मात्र यन्त्रनो आपणे विचार करी शकता नथी ।
ऋषिमण्डलयन्त्रनी प्राचीनता
आपणी ज्ञानमर्यादामा हाल जे यन्त्रो छे तेमां ऋषिमण्डलयन्त्र सौथी विशेष प्राचीन हशे एम कहेवाने मुख्यत्वे वे कारण छेः एक तो ए के आ ऋषिमण्डलयन्त्रनुं पूजन अति प्राचीन समयथी थतुं आन्युं छे, एवा आधारो आपणने प्राप्त थाय छे। बीजुं ए के आ यन्त्रनी प्राचीनता तथा तेना प्रभुत्व विषे चर्चा करतुं जे साहित्य, लोकोक्तिओ आदि मळे छे तेवुं भने तेटलं पुराणुं अन्य कोई यन्त्रनी बाबतमां मळतुं नथी ।
ऋषिमण्डलयन्त्रनो प्रभाव
आ यन्त्रनी रचना, तेना आराधको अने आराधकोए मेळवेल फलश्रुतिनुं वर्णन करतां अनेक स्तोत्रो, श्लोको, उद्वारो आपणा वांचवामां आवे छे। तेथी आ यन्त्र अतीव प्रभावसम्पन्न छे एमां बे मत नथी; अने आवुं सनातन प्रभावशाली यन्त्र ज युगो सुधी अविस्मृतपणे टकी शके । तेनी प्राचीनता पूरवार करवा माटे आ शाश्वत प्रभाव पण सबळ कारण छे ।
आ यन्त्रनी विधिपूर्वकनी आराधनामां जेम जेम प्रगति थाय छे तेम तेम अपूर्व अनुभवोनी झांखी थती जाय छे। अकल्प्य भावसृष्टिमां विहार करता होईए एम लागे छे । आ बाबत मुख्यत्वे अनुभवगम्य छे अने तेथी ते अंगेनो वाक्यविस्तार अहीं अनावश्यक छे ।
यन्त्रना आराधकनी योग्यता
यन्त्र अति प्रभावशाली छे। अने तेनो आराधक कदीय न अनुभव्या होय एवा भावो अनुभवे छे; तो पछी बधा आराधकोने एवी झांखी केम थती नथी आ एक अति महत्त्वनो प्रश्न छे; कारण के ते एक आराधकनो नहीं पण खास करीने वर्तमानकाळना सेंकडो आराधकोनो प्रश्न छे । फलश्रुतिनी निष्फळता माटे मात्र बे ज कारण होई शके: कां तो यन्त्रमां खामी होय अथवा यन्त्रना आराधकमां खामी होय । आ यन्त्रमां क्षति छे एवं सिद्ध करवाने आपणी पासे कोई कारण नथी अने तेथी आराधकने पक्षे ज विचारवानुं रहे छे ।
आकर्षक अने प्रेरक वचनोथी खेंचाईने अनेक आराधकोने अपूर्व अनुभवो अनुभववानी इच्छा थई आवे छे, परंतु योग्यता केळव्या विना ए गहन मार्ग प्रति डगलुं भरवुं हितकर नथी । वर्तमानकाळमां यन्त्र-मन्त्र आदिनो प्रभाव ओछो वर्ताय छे; तेमां आराधकनी योग्यतानो अभाव ए प्रधान कारण छे; आराधके आराधनाना अधिकारी
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अग्रवचन
थवा माटे अमुक गुणो केळवी भूमिका बांधवी जरूरी छे। श्रद्धा, निष्ठा, गुरुपारतंत्र्य, अप्रमत्तता, विधिज्ञता, सदाचार, नियमपालन, द्रव्य-क्षेत्र-काळ अने भावनी समज तथा शुद्धि, उच्चारस्पष्टता आदि गुणोनी प्राप्ति कर्या पछी ज यन्त्र-आराधना माटे अधिकारी बनी शकाय छे। परवाना विना परदेश तरफ प्रयाण करनार गुन्हेगार गणाय छे, तेम योग्यता केळन्या विना आ विषयमा प्रवेश करनार हानिकर्ता थाय छे ।
शक्ति अने सिद्धि
योग्य गुणो केळवीने अधिकारी बनेलो आराधक ज्यारे यन्त्र, मन्त्र अने तन्ना विषयमा प्रवेश करे छे त्यारे ते अदृष्ट, अकल्प्य अने अपूर्व सृष्टिनो निवासी बने छे। जो के काळनी विषमताने कारणे आ विषयना जाणकारो दुर्लभ थया छे अने तेथी केटलीक अतन्त्रता प्रवर्ते छे; परंतु तेथी यन्त्रविज्ञाननी महत्ता घटती नथी। मन्त्रमा अनन्य शक्ति अंतर्गत छ। मन्त्र द्वारा प्राणशक्ति जागृत थाय छे अने आराधक अभूतपूर्व आनंदनो अनुभव करे छे। आ मन्त्रशक्ति
त्वे बे विचारधारा जोवा मळे छे । केटलाक मन्त्रो स्वयं एवु सामथ्ये धरावे छे के तेनुं अभीष्ट कार्य ते पोते ज सिद्ध करे छे; तेमां कोईपण देवताए माध्यम बनवानी आवश्यकता रहेती नथी । ज्यारे केटलाक मन्त्रो देवता द्वारा कार्यसिद्धि करे छे अने तेमा मुख्यत्वे अधिष्ठाता देव प्रति मनने केन्द्रित करवानुं होय छे। कोईपण मन्त्रने स्वाधीन करवा माटे पाठ, जाप अने ध्याननी योग्य समज मेळवी लेवी जरूरी छ।
___ व्याकरणसाहित्यनी जेम मन्त्रसाहित्यमा केटलाक मन्त्रो रूढ अने अनादिसिद्ध छ; ज्यारे केटलाक मन्त्रो संयोजित थई शके छे। अर्थात् अमुक मन्त्रो शाश्वत छ; अने ते सिवायना घणाखरा मन्त्रो काळ अने क्षेत्रनी मर्यादाथी बद्ध छ । जेमके 'ॐ ही अर्ह', 'पञ्चपरमेष्ठिमहामन्त्र' आदि शाश्वत मन्त्रो छे; ज्यारे गुरुनाममन्त्र वगेरे काळथी मर्यादित, अल्पजीवी अने अल्पफळदायी मन्त्रो छ।
मन्त्रनी जेम यन्त्रनी बाबतमां पण ए वात लक्ष्यमा राखवानी होय छे। यन्त्र सवीर्य होय तो ज यथावत् फळनी प्राप्ति करावे छे। मन्त्रनी जेम यन्त्रना पण रेखात्मक शून्यात्मक, अक्षरात्मक, चित्रात्मक आदि प्रकारो छे। आवां यन्त्रो गमे तेम, गमे ते पदार्थ पर अने गमे त्यारे करवाथी फळदायी बनतां नथी। आकृति, माप, द्रव्य आदि बाबतोर्नु ज्ञान प्राप्त करी योग्य समये विधिपूर्वक करेलु यन्त्र अभीप्सित सिद्धि अर्पवाने समर्थ बने छ।
ग्रन्थज्ञान अने गुरुगमज्ञान
यन्त्र, मन्त्र अने तन्त्रनुं ज्ञान मात्र पुस्तकोने आधारे प्राप्त करी अमल करवामां स्वहित जोखमावानो संभव रहे छ। मन्त्र-तन्त्रनी आराधना जवाबदारी विना करवामां आवे त्यारे घणीवार विपरीत परिणामो निपजावे छे। पथ्यपालन करवाने बदले रसौषधि- सेवन करवाथी जेम ते फूटी नीकळे छे तेम मन्त्रसाधनामां पण बने छ । मन्त्रना अधिनायक देवना स्वभावने ओळखीने तेनी अनुकूळता जाळववी आवश्यक छे; अन्यथा ते देव प्रसन्न थवाने बदले प्रकुपित थाय छे अने हानि पहोंचाडे छे। आ ज कारणे साधारण मानवो माटे के मात्र पुस्तकियुं ज्ञान धरावता आराधको माटे उग्र देवोनी साधना करवानी मना करवामां आवी छ। ट्रॅकमां, यन्त्र-मन्त्रनी आराधनामां मात्र ग्रन्थज्ञान उपयोगी नीवडतुं नथी। आ विषयमां गुरु द्वारा प्राप्त थयेल ज्ञान ज सौथी विशेष पथ्य नीवडे छ। आर्यावर्तनी परिणयन क्रियामा जेम अणवरनी जरूर पडे छे तेम मन्त्रसाधनानी क्रियामा प्रवेशक-आराधकने उत्तरआराधकनी अनिवार्य जरूर पडे छ। मन्त्रसिद्ध थयेल आराधक पासेथी मेळवेल मन्त्रज्ञान सद्यः फळदायी बने छ। गुरु विना साचुं ज्ञान मळतुं नथी। साचुं ज्ञान ज तिमिरमां ज्योतीरूप बने छे, प्रगतिनो पंथ खुल्लो करे छे अने मुक्तिपदनी प्राप्ति करावे छे। योग्य गुरुनी प्राप्ति अने तेवा गुरु प्रत्येनो पूज्यभाव, विवेक अने विनम्रता केळववार्नु आवश्यक छ एटलुंज नहीं पण अनिवार्य छ। आ ज कारणे मन्त्रसिद्ध गुरु पासेथी ज्ञान मेळववाने बदले अन्य रीते मन्त्रो
१ सवीर्य = चैतन्यमय, सामर्थ्यवाकुं।
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अग्रवचन
मेळवी लेवानी वृत्ति ज्यारथी जन्मी अने केटलेक अंशे तेनो दुरुपयोग पण शरु थयो त्यारे मन्त्रोने गोपवी देवानी प्रथा अस्तित्वमा आवी।
यन्त्र-मन्त्र साहित्यमां जैनोनो फाळो
यन्त्र, मन्त्रने यथावत् सिद्ध करनार अनेक महान आचायों अने प्रखर आराधको जैन समाजमां थई गया छ । आवा ज्ञानी गुरुओए ज आ विज्ञान- ज्ञान वहेतुं राख्यु छ। मन्त्रना प्रभावथी पोते अनुभवेल अनेक अद्भुत क्षणो, निहाळेल दिव्य सृष्टिओ अने भव्य प्रसंगोनु वर्णन करतुं केटलंय साहित्य रचायेल छ। मन्त्रने जेम स्तोत्रमा गोपवी देवामां आवता तेम आवा साहित्यने पण खूब काळजीपूर्वक छूपावी राखवामां आवतुं; अने तेथी ज आजे प्रकट साहित्य करतां अप्रकट साहित्य विशेष प्रमाणमां छे । यन्त्र-मन्त्रविषयक प्रकट थयेल अनेक वेदिक ग्रन्थो जोतां एवी शंका स्वाभाविक थाय के जैनोमां आ प्रकार- साहित्य अल्प प्रमाणमां हशे; परंतु तुलनात्मक अभ्यास करनार संशोधकना मनमा आवी शंका लांबो समय टकशे नहीं। एटलं आपणे अवश्य स्वीकार जोईए के जैनवाङ्मयनो यन्त्र-मन्त्र विभाग हजु यथायोग्य रीते व्यवस्थित थयो नथी। जो तेनुं चीवटपूर्वक ऊंडु संशोधन करी व्यवस्थित प्रकाशन करवामां आवे तो आ विषयमा प्रवेश करनारने तेनी अद्भुतता अने दिव्यतानो ख्याल आव्या वगर रहे नहीं।
आचार्य श्रीसिंहतिलकसूरि अने तत्कालीन परिस्थिति
छेल्ले छेल्ले जे समर्थ मान्त्रिको थया तेमां प्रस्तुत कृतिना रचयिता आचार्य श्रीसिंहतिलकसूरि अगत्यनुं स्थान भोगवे छे। यन्त्र-मन्त्र साहित्यमा तेमणे आपेल फाळो खूब ज नोंधपात्र छ। तेमना समग्र मन्त्रविषयक साहित्यर्नु विहंगावलोकन करतां तुरत समजाय छे के आ विषयना तेओ एकनिष्ठ उपासक हता एटलं ज नहीं पण समर्थ निष्णात हता। 'मन्त्रराजरहस्य' नामनो तेमनो महान ग्रन्थ अति गंभीर अने मननीय छे। ते ग्रन्थमा तेमणे तेमना समस्त मन्त्रविषयक ज्ञाननो निचोड आपी दीधो छ।
तेमनी हयातीनो समय चौदमी शताब्दिनो पूर्वार्ध छे। ए समयमा मन्त्र-तन्त्र-वाद सजीव हतो। जो के केटलाक विशिष्ट मन्त्रो वगेरेनुं ज्ञान-साहित्य लुप्त थई गयुं हतुं तेम छतां वर्तमान समय करतां घणुं वधारे अने व्यवस्थित मन्त्रसाहित्य ए समयमा अस्तित्व धरावतुं तुं। योग्य आत्माओने गुरुगम दुर्लभ न हता। मन्त्रादि शक्तिनो दुरुपयोग ठीक ठीक प्रमाणमा चालु हतो अने ते ज मन्त्रसाहित्यनी विस्मृति माटे प्रधान कारण बन्यु।।
आचार्यश्रीना समयमां भिन्न भिन्न विशिष्ट आम्नायोनी अनेक परंपराओ चालु हो। आवी अनेकविध परंपराओ जोई आराधक विभ्रममां पडी जाय एवी परिस्थिति हशे; कारण के तेवे वखते शुं साचुं अने शुं खोटुं तेनो निर्णय करवो अति कठिन बनी जाय छे। अहीं एक हकीकत नोंधवी जोईए के चाली आवती जुदी जुदी प्रत्येक परंपरा वत्ता-ओछा प्रमाणमां कार्यक्षम होय छे, फक्त तेमां अल्पज्ञ लेखको आदिथी जे काई भळतुं लखाई गयं । कांई अनुचित-अनुपयोगी मिश्रित थई गयुं होय तेने दूर करी शुद्धिकरण करवानुं रहे छे। आचार्य श्रीसिंहतिलकसूरिए आ कार्य खूब सफळतापूर्वक पार पाड्युं छे ए बाबत तेमना ग्रन्थोनुं अवलोकन करतां तुरत समजाय छे। तेमनी समन्वयदृष्टि तेमना प्रत्येक ग्रन्थमा अछती रहेती नथी।
श्रीऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखन
ऋषिमण्डलयन्त्र अति प्राचीन छे, तेनो पाठ पण युगोथी प्रचलित छे अने ग्रन्थकारना समयमां पण तेम ज हतुं । आ यन्त्रना प्रभावने अति उत्कृष्ट रीते प्रतिपादित करतुं 'बृहद् ऋषिमण्डलस्तोत्र' पण तेमना समयमां मोजूद हतुं तो पछी अहीं प्रकट करेल स्तवनी रचना श्रीसिंहतिलकसरिने शा माटे करवी पडी ? उपर जणाब्यु तेम प्रस्तुत रचनानो हेतु पण अन्य ग्रन्थोनी जेम समन्वय साधवानो छे। ते जमानामा प्रवर्ती रहेल अनेक प्रणालिकाओमांथी सत्य तारवीने तेने पुनःप्रस्थापित करवानुं दृष्टिबिन्दु ग्रन्थकार समक्ष हशे। जो के स्तोत्रपाठ, यन्त्र-आलेखन अने पूजन एम
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अग्रवचन
ऋषिमण्डलना त्रण विभाग पैकी द्वितीय विभागनुं अहीं प्राधान्य छे अने ते तेना शीर्षक परथी पण समजाय छे। प्राचीन स्तवनी परंपरा घणी जूनी होवा छतां तेमां अनेकवाक्यता प्रवर्तती हशे अने परिणामे यन्त्रन आलेखन करवामां विषमता ऊभी थवानो संभव हशे। अर्वाचीन परिस्थिति पण एवी ज छे; कारण के अनेक प्रकारनां ऋषिमण्डलयन्त्रो प्राप्त थाय छ। आ संजोगोमां आ कृति साची रीते मार्गदर्शक बनी शके एम छे; कारण के सर्वत्र प्रवर्ती रहेली तत्कालीन अतन्त्रतामांथी साचो मार्ग दर्शाववानी भावनापूर्वक आ रचना करवामां आवी जणाय छे। मात्र छत्रीश श्लोकोमा अति प्रभावसम्पन्न एवा आ ऋषिमण्डलयन्त्रनुं खूब अद्भुत रीते आलेखन करवामां आव्यु छे। यन्त्रालेखननी आवी कडीबद्ध अने सुव्यवस्थित माहिती आपणने अहीं सिवाय बीजे क्याय मळती नथी अने तेथी आ कृतिनुं प्रकाशन ' 'ऋषिमण्डल'नी तवारीखमां महत्त्वन सीमाचिह्न बनी रहे छ।
उपसंहार
___ 'ऋषिमण्डलयन्त्र'- सारभूत वस्तुनिदर्शन सुश्रावक शेठ श्री. अमृतलालभाईए विगतथी कर्यु छे एटले तेनो वधारे विस्तार अहीं कयों नथी; परंतु आ महाप्रभावक यन्त्रनी आराधना करता पहेलां एक वात खास लक्ष्यमां राखवी जोईए के तेनो कोईपण प्रकारे दुरुपयोग न थाय । शुद्धबुद्धिपूर्वकर्नु पूजन ज यथार्थ फळदायी बनशे अने ते ज परमसिद्धिनी प्राप्ति करावी शकशे। आ यन्त्र गमे एने आपी शकाय नहीं अने ते बाबत पर खास भार मूकतां आचार्य श्रीसिंह तिलकसूरिए स्पष्ट जणाव्युं छे के "सम्यग्दृष्टि, विनीत अने ब्रह्मचर्यव्रत धारण करनारने ज आ यन्त्र आपq । मिथ्यादृष्टिने न ज आपकुं। तेने एटले के मिथ्यादृष्टिने आपवाथी श्रीजिनेश्वरभगवंतनी आज्ञाना भंगरूप दूषण लागे छ ।” ढूंकमां, ए अभिलाषा के आ यन्त्र अध्ययन, पूजन अने अर्चन सदुपयोग माटे थाय अने ए रीते तेनो योग्य आराधक विशिष्ट परिणामो प्राप्त करे।
लि.
पं. श्री. धुरन्धरविजयजीगणी
श्री अमृतसूरीश्वरजी ज्ञानमंदिर दोलतनगर, बोरीवली (पूर्व), मुंबई-६६
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श्रीऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखननु
सारांश दर्शन
ऋषिमण्डलस्तबयन्त्रालेखन-आ स्तवना नाम उपरथी एवं सूचन मळे छ के ते केवळ यन्त्रालेखननी प्रक्रिया दर्शाववा पूरतुं स्तवकारे रच्युं होय; परंतु तेमां आलेखननी प्रक्रिया उपरांत यन्त्रविज्ञान विषे स्तवकारे यन्त्रना भेदो तथा तेना अवांतर भेदो गर्भित रीते दर्शाच्या छे, जेनो सारांश आपवानो अहीं प्रयास करवामां आवे छे।
१. मंगलादि-श्लोक नं. १:
मन्त्रयोगनी प्रणालिका अनुसार अनंतर गुरु तथा परंपर गुरुने प्रणाम करी स्तवनी शरूआत करवामां आवे छे। आ प्रकारे आत्यन्तिक स्थानना बन्ने गुरुओने प्रणाम करवाथी समग्र गुरुपरंपराने प्रणाम थाय छे। अहीं अनंतर गुरु ते श्रीविबुधचन्द्रसूरि अने परंपर गुरु ते चरम तीर्थंकर श्रीमहावीर प्रभु। आथी स्तवनी शरूआत महामंगलकारी थाय छे।
२. यन्त्रस्वरूप आलेखन प्रक्रिया-श्लोक नं. २ थी नं. १२:
आ अगियार श्लोकोमा अनेक अवांतर भेदो छे; तेथी तेने अहीं नीचे प्रमाणे व्यवस्थित रीते रजू करवामां आवे छे:
(१) यन्त्रदेह माटे द्रव्य तथा साधन-सामग्री-श्लोक नं. २ (अ) भर्चना-पूजा माटे यन्त्रपटनु द्रव्य:-सोना, रूपा अथवा कांसाना पत। उपर यन्त्रनी स्थापना
करवी। अथवा त्रणे धातुनी (आम्नाय प्रमाणे) मेळवणी करावीने तेना पतरा उपर यन्त्रनी
स्थापना करवी। (ब) रक्षा माटे यन्त्रपट- द्रव्य :-भोजपत्र उपर यन्त्रनी स्थापना करवी। (क) लेखन माटे साधन-सामग्री :-अष्टांगगंध तथा सुवर्णलेखिनी ।
उत्तम द्रव्य तथा साधन-सामग्रीनो ज अहीं निर्देश करवामां आव्यो छे । अहीं एक आम्नाय स्पष्ट मळे छे के यन्त्रनो उपयोग पूजा माटे तथा रक्षा माटे छे। यन्त्रनी स्थापना करवानो अहीं निर्देश छे; परंतु ते प्रचलित विधि प्रमाणे करवानी हशे तेथी
तेनो कई आम्नाय दर्शावायो नथी। (२) यन्त्रालेखन-बहिर्वलय निर्माण-श्लोक नं. ३
बहिर्वलयनु निर्माण प्रथम करवाथी यन्त्रदेहना मध्यबिन्दुनो तथा तेनी सीमानी मर्यादानो निर्णय थाय छे; अने ते वलय जलमण्डलनु होवाथी यन्त्रनो उपयोग शांति, तुष्टि अने पुष्टि माटे थई शके छे। जलमण्डलना वर्णनो पण अहीं निर्णय थयो छे । ते श्यामल अथवा नीलवर्णनुं छे ।
आगळ उपर पिण्डस्थ ध्यान करवानुं छे तेथी तेने अनुकूळ थाय तेवी रीते लवणसमुद्रनी यन्त्रव्यवस्था छ । (३) यन्त्रालेखन-मध्यवलय निर्माण-श्लोक नं. ४
यन्त्रना मध्यभागमां जंबूद्वीप अने तेनी आठ दिशाओमां अर्हसिद्धादि अभिधापंचक तथा ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनो निर्देश छे । मध्यभाग पण पिण्डस्थ ध्यानने अनुकूळ करवामां आव्यो छे ।
शान, दर्शन अने
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सारांश दर्शन (४) जाप्यमन्त्र संयोजना-प्रथम खण्ड-बीजाष्टक-श्लोक नं. ५ जाप्यमन्त्र त्रण खण्डमां व्यवस्थित थयो छ।
यन्त्रालेखननो प्रस्ताव चालु होवा छतां ते दरम्यान मन्त्रोद्धारनो निर्देश शरू थाय छे; कारण के तेना प्रथम खण्डमां जे बीजाष्टक छे तथा बीजा अने त्रीजा खण्डमां जे पदाष्टक छे तेनो यन्त्रालेखनना दिग्विभागमा समावेश करवो छ। (जुओ-श्लोक नं. ७)
प्राकृत जनने गुरुगम विना जाप्यमन्त्रनो स्फोट न थाय तेटला माटे तेने श्लोकमां विदर्भित करी गोपववानी प्रथा हती। ते प्रथा अनुसार अहीं श्लोक नं. ५ तथा नं. ६ मां जाप्यमन्त्र गोपव्यो छे।
परंतु स्तवकारे उपकारदृष्टिए विदर्भित श्लोकमांथी मन्त्रोद्धार करी जाप्यमन्त्र स्पष्ट कयों छे । (५) जाप्यमन्त्र संयोजना-द्वितीय तथा तृतीय खण्ड-पदाष्टक-श्लोक नं. ६
अर्हदादि पंचपरमेष्ठिनुं पदपंचक ते जाप्यमन्त्रनो द्वितीय खण्ड छे अने ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना त्रण पद ते जाप्यमन्त्रनो तृतीय खण्ड छ। द्वितीय खण्ड तथा तृतीय खण्ड मळीने पदाष्टक थाय छ ।
त्रण खण्डना आ जाप्यमन्त्रना अक्षरनी संख्या नीचे प्रमाणे छे:
अक्षर (वर्ण) संख्या
१ जाप्यमन्त्रनुं शिर-ॐ ८ बीजाष्टक-जाप्यमन्त्र प्रथम खण्ड
५ पदपञ्चक जाप्यमन्त्र द्वितीय खण्ड असि आ उ सा
पदाष्टक ९ पदत्रिक । जाप्यमन्त्र तृतीय खण्ड
ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यो २ जाप्यमन्त्रनो पल्लव-नमः
२५ आ प्रकारे जाप्यमन्त्र पच्चीस अक्षरनो (वर्णनो)* थाय छे। कोई 'सम्यक्' शब्द उमेरी जाप्यमन्त्रने सत्तावीस अक्षरनो करे छे; परंतु अहीं आम्नाय निश्चित प्रकारे मळे छे तेथी तेमां आवी रीते काईपण उमेरो करवो इष्ट नथी।
कोई जाप्यमन्त्रमा एक 'ही'कार विशेष उमेरे छे। तेम करीने 'ही'कारनो संपुट साधे छे; परंतु तेवी कोई विशिष्ट क्रियानी अहीं आवश्यकता नथी। एम होत तो स्तवकार तेनो स्पष्ट उल्लेख करत ।
(६) यन्त्रालेखन-दिक्बंधन-श्लोक नं. ७
मन्त्रोद्धार प्रमाणे निर्णीत थयेला जाप्यमन्त्रनो अहीं आठ दिशाओनी रक्षा माटे दिक्बंधन करवामां उपयोग थाय छे। जाप्यमन्त्रना बे खण्ड करीए तो (१) बीजाष्टक तथा (२) पदाष्टक थाय छ। ॐकार साथे बीजाष्टकनुं एक
* आने कोई ‘मन्त्रवर्णनिचय' पण कहे छ। सरखावो
तन्मन्त्रवर्णनिचर्य स्थितिवर्णकर्मभेदैर्भणाम्यहमिहात्महिताय बालः ॥ १५॥ ---श्रीसागरचन्द्रसूरिविरचित 'श्रीमन्त्राधिराजकल्प'
(जैनस्तोत्रसंदोह-पृष्ठ २३४)
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सारांश दर्शन
बीज तथा पदाष्टकर्नु एक पद तथा पल्लव तरीके नमः-आ प्रमाणे बीजाष्टक तथा पदाष्टकमांथी आठ दिबंधनना मन्त्रो व्यवस्थित करवामां आवे छे; अने तेओर्नु स्थान यन्त्रनी आठ दिशाओमा राखवामां आवे छे।
(७) यन्त्रालेखन-दिग्विभाग-श्लोक नं. ८
आठ दिक्पालो अथवा लोकपालो-तेओनी मुद्रा तथा आयुधो साथेना चित्रो यन्त्रनी आठ दिशाओमां राखवामां आवे छे।
(८) यन्त्रालेखन-कालविभाग-श्लोक नं. ९
आठ ग्रहो-तेओनी मुद्रा तथा आयुधो साथेना चित्रो यन्त्रनी आठ दिशाओमा राखवामां आवे छे । नवमा ग्रह केतुनुं स्थान राहु साथे छे ।।
(९) यन्त्रालेखन-अंगरक्षा अथवा सकलीकरण-श्लोक नं. १०
यन्त्रना गर्भमागर्नु आलेखन करवान रहे छे तेथी ते करतां पहेलां दिग्बंधन तथा दिक्पालो अने ग्रहो तरफथी रक्षा तेम ज अंगरक्षानी आवश्यकता हशे तेथी अहीं श्लोक नं. ७-८-९ तथा १० नी प्रक्रिया दर्शाववामां आवी छ । आ सघळु कर्या पछी यन्त्रना गर्भगृहना आलेखननी प्रक्रिया छ ।
(१०) यन्त्रालेखन-मध्यवलय निर्माण-श्लोक नं. ११
श्लोक नं. ४ मां यन्त्रना मध्यभागमा जे जंबूद्वीपर्नु आलेखन कर्यु तेना पण मध्यभागमा पीळा वर्णन वलय करवं, जे सुमेरु अने निरक्षररूप+ 'ही' कारनुं स्थान छ। 'अर्ह' कार जेम अक्षर छे तेम 'ही' कार निरक्षर छ। ते 'अलक्ष्यवपुः' (जुओ श्लोक नं. २२) छे। आ सघळां नामो एक ज अर्थना वाचक छ ।
आ पीतवलयनी उपर बत्रीश कूटाक्षरोनुं वलय करवानो निर्देश छ । प्राणशक्ति जागृत करवाने कटाक्षरनो प्रयोग होय तेम जणाय छे, तेथी गुरुगमथी जाणी लेवो । (११) यन्त्रालेखन-गर्भगृह तथा बहिरावेष्टन-श्लोक नं. १३
यन्त्रनो गर्भभाग जे ऊर्श्वभाग तरीके दर्शावायो छे ते यन्त्रना मध्यबिंदुनी आसपासवें स्थान छे। मध्यबिंदु नजीकनो भाग ऊर्ध्व अने तेनाथी जेम जेम दूर ते अधोभाग-आ प्रमाणे यन्त्रालेखन माटे शब्दप्रयोग छ।
____देह ते इन्द्रिय, मन अने प्राण आदिनो संघात छे; तेथी आराधक देश अने काळनी अत्यंत सांकडी सीमाथी मर्यादित रहे छ । आम होवाथी आराधक भूतकाळना अने घणीवार लांबा भूतकाळना अनुभवोनी झांखी वर्तमानकाळमां केम करी शके ? भूतकाल अने वर्तमानकाळy संकलन ए जुदाजुदा काळ अने जुदाजुदा क्षेत्रना अनुभवोथी उत्पन्न थता संस्कारराशिनी अपेक्षा राखे छे। वळी एवा संकलनने परिणाम ज भावि ध्येयोना विचारो वर्तमानमा उद्भवे छे। अनेक प्रयत्नो पछी सत्यसंकल्प महर्षिओए देश (दिक्पालो) अने काल (ग्रहों) नु यन्त्रमा (उपर्युक्त श्लोक नं. ८ तथा ९ मां दर्शाव्या प्रमाणे) नियंत्रण कयु। तेथी देश अने काळनी मर्यादाथी बद्ध एवा भूतसंघातवाळा देहथी आराधकने जे अर्थक्रियाकारित्व प्राप्त थतुं नथी ते इन्द्रियो, मन अने प्राणनी एकाग्रतापूर्वक आवा नियंत्रणवाळा यंत्रना अर्चन-पूजनथी साधी शकाय छ। तेवी एकाग्रता शब्द अथवा पदनी मुख्यता द्वारा साधवानी प्रक्रियानुं विज्ञान ते मंत्रयोग अने तेनी साधना माटे प्रक्रियानो एक विभाग ते यन्त्र ।
* सुमेरु मेरुना अनेक अर्थ छ। ते अंगे जिशासुए श्रीसिंहतिलकसूरिना ‘मन्त्रराजरहस्य 'नु वाचन करवु घटे छ। कोई मेरुनो अर्थ मेरुपर्वत ल्ये छे अने ते प्रमाणे पीतवलयमा पर्वतनी रेखाओ पण आलेखे छे । आ साथे जे यन्त्र छे तेमां सुमेरुने 'आईन्त्यम् ' अथवा ' ही 'कार समजी आलेखन कर्यु छे तथा मेरुपर्वतनी उपमा घटावी मेरुपर्वतना ३२ कूटनी जेम ३२ कटाक्षरो फरता आलेखवामां आव्या छ।
_ + जे पदोनो अथवा बीजाक्षरोनो निरक्षर तरीके निर्देश थाय तेओ अर्थसूचक करतां ध्यानसूचक वधारे होय छे। अहीं 'ही' कार निरक्षर छे तेथी तेनी ध्यान माटे मुख्यता समजवी ।
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सारांश दर्शन
उपर 'ही 'कारनुं निरक्षर स्वरूप दर्शावायुं । हवे ते 'ह' कार, ' र 'कार अने 'ई'कार तथा उपलक्षणथी 'नाद', 'बिंदु' अने 'कला' ना संयोजनवालुं सिंहासन छे तेम दर्शावाय छे। तेना उपर चतुर्विंशति तीर्थकरो जे पण 'ही' कारस्वरूप छे तेनुं अधिष्ठान छे । वाच्य वाचकनो भेद नथी तेवुं स्वरूप अहीं दर्शावायुं छे ।
वारुणमण्डलनी बद्दार एटले मण्डलनी सीमानी मर्यादा बहार 'हाँ' कारना साडा त्रण वलयनुं आवेष्टन छे, ते नादस्वरूप अथवा प्राणशक्ति ( कुंडलिनी) स्वरूप छे । -
३. प्रणिधान प्रयोग — श्लोक नं. १३ थी नं. २३ :
(१) द्वारगाथा - श्लोक नं. १३
प्रणिधान माटे यन्त्रनुं निर्माण केवी रीते थयुं छे ते आ द्वारगाथाथी समजाववामां आव्युं छे ।
यन्त्रनी रचना पार्थिवी धारणाने अनुकूळ होवाथी ते पिण्डस्थ ध्यान माटे योग्य छे । ते मन्त्रयुक्त होवाथी पदस्थ ध्यान माटे योग्य छे। अने तेमां चतुर्विंशति तीर्थकरोना बिंबो ( ना रूप ) होवाथी ते रूपस्थ ध्यान माटे योग्य छे ।
(२) पिण्डस्थ ध्यान --श्लोक नं. १४-१५
ध्येयनी मुख्यतावाकुं प्रचलित पार्थिवी धारणानुं स्वरूप अहीं दर्शावायुं छे ।
(३) पदस्थ ध्यान - श्लोक नं. १६-१७-१८-१९-२०
श्री सिंह तिलकसूरिए जापना तेर प्रकारो दर्शाव्या छे तेमां ध्याननो अगियारमो प्रकार छे। * तदनुसार ध्यान 'वर्णमण्डलतत्वानुगम् छे । एटले के स्थिर अध्यवसाय - वर्ण एटले रंग उपर, मण्डल एटले शान्त्यादि कर्मनिष्पत्तिना हेतुरूप यन्त्रनी आकृति उपर, अने तत्त्व उपर आ प्रकारे वर्ण, मण्डल अने तत्त्व उपर ध्यान करवानुं होय छे ।
अहीं पदनी मुख्यता होय । तदनुसार जाप्यमन्त्रना वर्णसमूहनुं ध्यान होवुं जोईए ।
जाप्यमन्त्रनुं स्थान यन्त्र—–गर्भगृहमां नथी । तेथी 'हाँ' कार जे एकाक्षरी मन्त्र छे अने सर्व मन्त्रस्वरूप छेतेना अवयवोमां स्थिति, वर्ण भने शान्त्यादि कर्मना * भेदथी ध्यान करवानी व्यवस्था छे ।
'हाँ'कारना सात अवयव निर्णीत करवामां आव्या छे; अने ते पैकी पांच शान्त्यादि कर्मनी निष्पत्तिना हेतुरूप वर्णवाळा निर्णीत करवामां आव्या छे । ते पांच वर्णवाळा अवयवमां चोवीश तीर्थकरोनुं ते ते वर्ण (रंग) प्रमाणे विभाजन करीने तेओनी ते ते अवयवमां स्थिति (अधिष्ठान ) विषे तथा ते ते शान्त्यादि कर्मनी निष्पत्ति माटे तत्त्व विषे विचिन्तननुं सूचन छे । (श्लोक नं. १६-१७-१८)
* सरखावो
रेचैक- पूरके - कुम्भा गुणत्रयं स्थिरकृति-स्मृती हक्कों | नांदो ध्यानं ध्येयैकत्वं तत्वं च नपभेदाः ॥ ७० ॥
१३
— श्री सिंह तिलकसूरिविरचितं 'मन्त्रराजरहस्यम् '
सरखावो
ध्यानं तु वर्ण-मण्डल- तत्त्वानुगमत्र लब्धिमन्त्रपदम् । श्वेतं भू-जलमण्डल- तत्त्वगतं शान्ति-पुष्टिदं विषहम् ॥ ८१ ॥
— श्री सिंहतिलकसूरिविरचितं ' मन्त्रराजरहस्यम् '
* जुओ पृष्ठ ११ नीचे नोंघेल ' मन्त्राधिराजकल्प 'नो श्लोक नं. १५.
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सारांश दर्शन
'कारनी बीजा प्रकारनी व्यवस्थामां पांच उपयोगी अवयवमां पंचपरमेष्ठिनी स्थिति (अधिष्ठान ) नं सूचन छे । (श्लोक नं. १९ )
१४
आ प्रमाणे ब्यवस्था होवा छतां थोडा फेरफार साथ पंचपरमेष्ठिनुं 'हाँ' कारमां अधिष्ठान थाय छे तेनी प्रणालिका विच्छेद न थाय ते माटे अहीं तेना विचिन्तननी नोंध छे । (श्लोक नं. २० )
(४) रूपस्थ ध्यान - श्लोक नं. २१-२२
उपरना श्लोक नं. १६-१७-१८ मां जे प्रमाणे 'हाँ' कारना अवयवोमां चोवीस तीर्थकरोनुं अधिष्ठान छे ते प्रमाणे रूपस्थ ध्यान माटे तल्लीन थवानुं छे । अहीं पदनी अथवा 'ही' कारना अवयवनी मुख्यता नथी पण वाच्यना संवेदननी अथवा वैद्यच्छायनी । मुख्यता छे ।
(५) रूपस्थ ध्याननुं परिणाम - वेद्यच्छायनी मुख्यतावाळी भूमिका - श्लोक नं. २३
आ यन्त्र जैन धर्मचक्र छे । तेना प्रभावथी ध्याता सुरक्षित रहे छे । योगिनीओ अने हिंसक पशुओ निःप्रभ थयेला होवाथी कांई हेरान करी शकतां नथी ।
रूपस्थ ध्यानना कारणे ध्यातानी वृत्ति क्षीण थई होय छे । ते लीनप्रायः होय छे ।
अहीं ध्याता ‘हाँ’कार-स्थित बिंबोनी रूपरेखाना संवेदनावाळो ज होय छे । आथी तेणे वेद्यच्छायना गर्भमां - ज्ञेय पदार्थ अविस्पष्ट होय छतां अवभासमान थाय तेना केन्द्रमां - प्रवेश कर्यो छे । आवी रीते ध्यानमां प्रवेश करनारने कोई हैरान करी शकतुं नथी । अहीं ध्याता 'सुषुप्ति' अवस्थामां होय छे ।
४. तात्पर्य - श्लोक नं. २४ थी नं. २८:
(१) समस्त देव तथा देवीओ तरफथी रक्षा - श्लोक नं. २४
अहीं महान लब्धिधारी गणधर भगवंत श्री गौतमस्वामीनी विख्यात मुद्राओ तथा लब्धिपदोनो आश्रय लेवानो छे । सत्यसंकल्प महर्षिओए जे उच्च भूमिका उपरथी मंत्र सिद्ध कर्या होय तेओनी सिद्धिओनुं विधिपूर्वक स्मरण करवाथी अने योग्य मुद्राओ धारण करवाथी त्रणे लोकना देवो तथा देवीओ तरफथी रक्षा मळे छे ।
(२) धृतिगुणनी याचना - श्लोक नं. २५
मन्त्रयोगनी साधनामां धैर्यनी खास आवश्यकता छे तेथी दश ऋद्धि देवीओ अथवा विद्यानी अधिष्ठात्री देवीओ पासे अहीं धृतिनी मागणी करवामां आवी छे ।
(३) फलादेश - श्लोक नं. २६
राज्यथी भ्रष्ट थयेला वगेरेने राज्यादिनी प्राप्ति करावनारी अने आपत्तिओमांथी बच्चावनारी आ एक महान
साधना छे ।
(४) यन्त्ररचना - भूर्जपत्र उपर- रक्षा माटे — श्लोक नं. २७
उपर जे यन्त्रन्यावर्णन थयुं ( यन्त्रनं विस्तारथी वर्णन थयुं) ते धातुपट उपर पूजा माटे करेल यन्त्र विषे हतुं । हवे भूर्जपत्र उपर रक्षा माटे करेला आलेखनना प्रभावनो निर्देश थाय छे ।
+ वेद्य एटले ध्येय अथवा वाच्य ।
छाया एटले आत्मगत प्रतिबिंबनी बोधक अवस्था । वेद्यच्छाय दशामां केवळ मनमात्रनो संसर्ग होय छे ।
आ प्रसंगे ध्यातानी सुषुप्ति अवस्था होय छे । आ एवी अवस्था छे के जेमां ध्याता-ध्यान करनार, ध्येय-ध्यान करवा योग्य, अने ध्यान ए त्रणे जेने एकताने प्राप्त थयेल छे एटले ध्यानावस्थामा स्वस्वरूपने पामेल छे, जेतुं अन्य स्थळे चित्त नथी एवा ध्यानीने कोई स्पर्शतुं नथी- कोई हेरान करी शकतुं नथी ।
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सारांश दर्शन आवा आलेखनवाळां यन्त्र कंठे, मस्तके अथवा हाथे बांधवाथी रक्षा थाय छे । (५) मन्त्रबीज-'ही' कारनुं स्मृति-रहस्य-श्लोक नं. २८ 'ही'कारना स्मरणमात्रथी त्रिलोकवर्ति सकल जिनबिम्बोनां दर्शन, स्तवन अने नमन जेटलो लाभ थाय छ। जिनशक्ति छे तेम उल्लेख थयो छे। शक्तिनां दर्शन द्वारा परमात्मानां दर्शन सुलभ छ।
५. आम्नाय-श्लोक नं. २९ थी नं.३१:
(१) तप वगेरे आम्नाय-श्लोक नं. २९ नीचे मापेल कोष्टक प्रमाणेआमां जे होमनुं विधान छे तेनी प्रक्रिया त्रण प्रकारे थई शके छे:
(अ) कषायचतुष्टयना अंतर्यागथी (ब) दशमा भागना विशेष जापथी अने
(क) विधि प्रमाणे हवन करवाथी आमां कोईपण प्रकारनो आश्रय लई शकाय छे; पहेलो प्रकार उत्कृष्ट छ । मन्त्राधिराजकल्पमा पूजा माटे षट्कर्म नीचे प्रमाणे छे:
* १. आह्वान २. आसन ३. सकलीकरण ४. मुद्रा ५. पूजा अने ६. जप-त्यार पछी होम । 'होम'ने आ प्रमाणे जुदो करी नाखवान कारण ए छे के तेना विकल्पोछे अने आ विकल्पो अहीं उपर दर्शाव्या छ।
(२) उत्तर-सेवा-श्लोक नं. ३० ___ अहीं सुधी पूर्व-सेवानो आम्नाय आपवामां आव्यो छे । हवे उत्तर-सेवा आपवामां आवे छे। आठ मास सुधी हमेश १०८ वार आ यन्त्रना बीज 'ही' कारर्नु जे स्मरण करे तेने गुणना संसर्ग आरोपथी संभेद ध्यान प्राप्त थाय छे। आवा ध्यानना कारणे तेने अहंत-बिंबनां दर्शन थाय छे अने तेथी तेना कर्मना ह्रासने कारणे सात भवमा ते शिवपद पामे छे।
(३) यन्त्रप्रदान–श्लोक नं. ३१
आ यन्त्र अथवा तेनी विधिनु प्रदान कोई मिथ्यादृष्टिने करवान नथी। सम्यगदृष्टि, विनीत अने ब्रह्मचर्य पाळनार ज आनो अधिकारी छे। आवा अधिकारी सिवाय कोईने आपवाथी आज्ञाभंगनुं दूषण लागे छ। ६. सारमन्त्रनी व्याख्या-श्लोक नं. ३२ थी नं. ३६:
अहीं चार श्लोकमां जाप्यमन्त्रना सार तरीके 'ॐ ही अर्ह नमः'रूप सारमन्त्रनो प्रभाव दर्शाववामां आव्यो छे। यन्त्र तथा मन्त्रना व्यावर्णननो सघळो झोक चारित्र उपर छे। रत्नत्रय ज जिनबीजनुं बीज छे तेवो अहीं स्पष्ट निर्देश कयों छे।
* सरखावो
आदौ जिनेन्द्रवपुरद्भुतमन्त्रयन्त्रा
ह्वानासनानि सकलीकरणं तु मुद्राम् । पूजां जपं तदनु होमविधि षडेव कर्माणि संस्तुतिमहं सकलं भणामि ॥२॥ ---श्रीसागरचन्द्रविरचित 'मन्त्राधिराजकल्प' द्वितीय पटल,
(श्रीजैनस्तोत्रसन्दोह, पृष्ठ २३२)
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सारांश दर्शन ऋषिमण्डलयन्त्रनी साधना घणी प्राचीन छे। विक्रमना चौदमा सैकामां अनेक प्रणालिकाओ चालती हशे तेथी तेने व्यवस्थित करवान भगीरथ कार्य श्रीसिंहतिलकसूरि जेवा मन्त्रवादीए न कर्यु होत तो आजे जे प्रणालिका तेमना स्तवमांथी प्राप्त थाय छे ते विच्छेद थाय एवी परिस्थिति इती ।
यन्त्रनो जैनचक्र तथा धर्मचक्र तरीके अहीं स्तवमा निर्देश मळे छे; परंतु 'हाँ'कार सर्वधर्मबीज छे, एवं स्पष्ट वचन आपणने श्रीसिंहतिलकसूरि पासेथीज मळे छे।
__ आ प्रकारे प्रस्तुत षट्खंडी यन्त्रालेखन स्तवमा श्रीसिंहतिलकसूरिए मांगलिक स्तुति करीने यन्त्रोद्धार, मन्त्रोद्धार, प्रणिधानविधि, तात्पर्य तथा सारमन्त्रनो आम्नाय कुशळतापूर्वक दर्शाव्यो छे ।
-श्री. अमृतलाल कालिदास दोशी, बी. ए.
जैन साहित्य विकास मण्डल
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श्रीसिंहतिलकसरिरचितं
ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्॥ श्रीवर्धमानमीशं ध्यात्वा श्रीविबुंधचन्द्रसूरिनतम् ।
ऋषि म एंड ल स्तवादिह यन्त्रस्यालेखनं वक्ष्ये ॥१॥
अनुवादः-विद्वान पुरुषोमां चंद्र समा गणधरोवडे (श्री विबुधचन्द्रसूरिथी) नमस्कार करायेला 5 श्री वर्धमानस्वामी,ध्यान धरीने 'ऋषिमण्डलस्तव'ने अनुसरीने अहीं हुं यंत्रना आलेखन(विधि)ने कहीश ॥१॥
१. श्रीविबुधचन्द्रसूरिनतम्- 'श्री विबुधचन्द्रसूरिजी' ए ग्रन्थकारना गुरुर्नु नाम छे । अहीं ते श्लेष करीने योज्युं छे।
२. ऋषि-पश्यन्तीति ऋषयः । अतिशयज्ञानिनि साधौ । (अभिधानराजेन्द्र)। ऋषि-शास्त्रचक्षुथी जगतनुं अवलोकन करनार अथवा अतिशयज्ञानवाळा साधु भगवंत। 10 ३. मण्डल-वृत्तम् । समुदाये । (अभिधानराजेन्द्र)।
ऋषिमण्डल एटले ऋषिओनो समुदाय । जिनावली तथा पंच परमेष्ठी ऋषिस्वरूप छे । 'ह्री'कार पण जिनावलीमय तथा पंचपरमेष्ठीमय छे* । वर्तमान चोवीशी ते अहीं जिनावली समजवी। जेओना बिंबोनू ते ते वर्णोथी (रंगथी) 'ही'कारमा आलेखन थाय छे ।
४. ऋषिमण्डलस्तवात्-प्रस्तुत ग्रंथ 'ऋषिमण्डलस्तव'ने अनुसारे यन्त्रालेखन केम करवू ते 15 जणाववा माटे रचायो छे । माटे ज 'ऋषिमण्डलस्तवात्' एम पंचमी विभक्तिनो प्रयोग करवामां आव्यो छे।
५. यन्त्र-शान्त्याद्यर्थकरलेखनप्रकारके । शान्ति, तुष्टि, पुष्टि आदि अर्थक्रियाकारि कर्म माटे आलेखननो प्रकार ते यन्त्र । देव्याः (देवस्य) गृहयन्त्रम् (भैरवपद्मावतीकल्प पृ. ११ श्लो. १३)
* मायाबीजं लक्ष्यं परमेष्ठि-जिनालि-रत्नरूपं यः। ध्यायत्यन्तर्वीरं हृदि स श्रीगौतमः सुधर्माऽथ ॥ ४४६ ॥
-श्रीसिंहतिलकसूरिरचितं 'मन्त्रराजरहस्यम्' अनुवादः--जे पंचपरमेष्ठि, जिनचतुर्विंशति अने रत्नत्रयरूप मायाबीजने लक्ष्य (मुख्य ध्येय) बनावीने तेनुं हृदयमा ध्यान करे छे, ते श्री वीर परमात्मानुं हृदयमां ध्यान करनार श्री गौतम के सुधर्मा गणधर सदृश थाय छे (?)। ऋ. मं. १
...
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम् सौवर्ण-रूप्य-कांस्ये पटात्मदेहेऽर्चनांकृते स्थाप्यम् । रक्षायै भूर्जदले कर्पूराद्यैः सुवर्णलेखिन्या ॥२॥*
अनुवादः--सोनु, रूपुं अने कांसु-ए वणना पटरूप देहमां (पटमां) पूजन माटे (आ यन्त्रनुं ) स्थापन करवू । रक्षा माटे भोजपत्रमा कपूर वगेरे (अष्टगंध)थी सोनानी लेखणीथी लखीने 5 स्थापq ॥२॥
देव अथवा देवीना अधिष्ठान माटे गृहरूप आलेखन ते यन्त्र । (यन्त्रं देवाद्यधिष्ठाने....नियन्त्रणे -श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यविरचित 'अनेकार्थसंग्रह' पृष्ठ ४६०)
यन्त्र मन्त्रनो आधार छे माटे मन्त्रमय छे अने देवता मन्त्रथी अभिन्न होवाथी मन्त्रस्वरूप छ। जे प्रमाणे देह अने आत्मा वच्चे (भेद अने अभेद) छे ते प्रमाणे यन्त्र अने देवता वच्चे पण समजवो। आ 10 प्रकारे मन्त्ररूपी देवनुं अधिष्ठान ते यंत्र छे। *
६. आलेखनम्-यन्त्रना स्वरूप विशे तथा पूजन, द्रव्य वगेरे विषे जे आम्नाय प्राप्त थाय ते पूर्वक यन्त्रनुं आलेखन करवानुं होय छे । यथाविधि आलेखन थयु होय तो यन्त्र सफळ थाय छे । आ कारणे श्री सिंहतिलकसूरि यन्त्र-रचनानो विधि आ स्तवमा दावे छे ।
७. सौवर्ण-रूप्य-कांस्ये-सोना, रूपा अने कांसा वडे निर्मित पटमां आ यन्त्रनुं आलेखन 15 करावq । पछी तेनी पूजा करवी ।
ताम्रपट पर पण आलेखन थयेलां यन्त्रो जोवाय छे। भूर्जपत्र प्रधान छे। बाकी रेशमी वस्त्र, उत्तम प्रकारना कागळ वगेरे पण उपयोगमा लई शकाय छे । +
* श्रीसिंहतिलकसूरिए प्रस्तुत ग्रंथनी रचना 'श्रीऋषिमंडलस्तोत्र' ना आधारे करी छे। तेथी 'श्रीऋषिमंडलस्तोत्र' ना श्लोको सरखामणी माटे योग्य स्थळे नीचे टिप्पणीमां रजू करीए छीए। उपरना श्लोकने 'श्रीऋषिमंडल20 स्तोत्र' ना नीचेना श्लोको साथे सरखावी शकाय :
सुवर्णे रौप्ये पटे कांस्ये, लिखित्वा यस्तु पूजयेत् । तस्यैवाष्टमहासिद्धिर्गृहे वसति शाश्वती ॥ ८ ॥ भूर्जपत्रे लिखित्वेदं, गलके मूर्ध्नि वा भुजे।
धारितं सर्वदा दिव्यं सर्वभीतिविनाशकम् ॥ ८९ ॥ * यन्त्रं मन्त्रमयं प्रोक्तं, मन्त्रात्मा देवतैव हि । देहात्मनो यथा भेदो, यन्त्रदेवतयोस्तथा ।।
-सुभाषितम् अनुवादः-यन्त्रने मंत्रमय का छे। मन्त्रनो आत्मा (अधिष्ठाता) देवता ज छे । यन्त्र अने देवतामां देह अने आत्मा जेवो भेद अने अभेद छ । 30 + यंत्रनो प्रस्तार त्रण प्रकारे थाय छे :
(१) भौम प्रस्तार-(निर्णीत परिमाणना) धातुना पतरानी, चांदीना पतरानी के चंदन अगर काष्ठना फलकनी (पाटियानी), भूर्जपत्रनी के कापडना पटनी अथवा कागळनी पीठ उपर यन्त्र आलेखाय अथवा चितराय ते 'भौम प्रस्तार' छ।
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम् बहिः क्षाराब्धिवलयं, श्यामलं लागतोऽक्षरैः ।
संषट्पञ्चाशता व्याप्तमन्तरद्वीपभूमिभिः ॥३॥ अनुवादः-(यन्त्रना) बहारना भागमां श्याम वर्णनुं लवण समुद्रनुं वलय करतुं । ते छप्पन (५६) अन्तरद्वीपनी भूमिओना वाचक व थी (ल नी आगळना वर्णथी) व्याप्त छ । (व्याप्त करवू) ॥३॥
10
८. अर्चनाकृते-पूजा माटे। पूजा माटे निर्दिष्ट धातुना पतरा उपर अथवा कपडांना पट 5 उपर यन्त्रालेखन थाय अने रक्षा माटे भूर्जदल-भोजपत्र उपर यन्त्रालेखन थाय ।
९. कर्पूराद्यैः-कपूर वगेरे वडे--अष्टगंधवडे। बरास, केसर, कस्तूरी, सुखड, अगर, अंबर, मरचकंकोळ, काचो हिंगळोक-अष्टगंध कहेवाय छे ।
१०. सुवर्णलेखिन्या-देवनी प्रीतिनी निष्पत्ति माटे सोनानी लेखिनी वडे यन्त्रनुं आलेखन कराय पण ते न होय तो दाडमनी सळी, अघेडानी सळी पण काममां आवे ।
११. बहिः-यन्त्रना प्रस्तार- मध्यस्थान बिंदु निर्णीत करी परिमाणनी दृष्टिए सीमा अथवा मर्यादा पूरी थाय त्यां वलय करवामां आवे ते बहिर्भागनुं वलय कहेवाय ।
१२. क्षाराब्धिवलयम्-वलय के ज्यां निर्देश प्रमाणे लवणसमुद्र आलेखवानो छ। १३. लाग्रतः-बाराखडीमां 'ल'नी पछीनो अक्षर 'व' छ। 'व'कार *वरुणर्नु प्रतीक छ। १४. अक्षर-वर्ण।
१५. सषट्पञ्चाशता-लवणसमुद्रमा ५६ आन्तर द्वीपर्नु विधान आवे छे । तेथी द्वीपना निर्देश माटे ५६ 'व'कारनुं अहीं विधान छ।
15
रव प्रस्तार-धातुना पतरानी अथवा चंदननी के काष्ठना फलकनी (पाटियानी) पीठ ऊपर जे यन्त्र-समग्र अथवा ओछेवत्ते अंशे-उन्नत राखीने कोराय ते मैरव प्रस्तार छे। आलेखन करवानो विभाग उपसी आवे तेवी रीते आजुबाजुनो भाग कोराय छ ।
20
(३) उत्कीर्ण प्रस्तार-धातुना पतरानी के चंदनना अथवा काष्ठना फलकनी पीठ उपर जे यन्त्रना आलेखननो भाग कोतराय ते उत्कीर्ण प्रस्तार छ।
यन्त्रनो प्रस्तार (१) आलेखाय (चितराय) (२) कोराय अथवा (३) कोतराय-ते समग्र रचना निर्दिष्ट क्रम प्रमाणे अने यथाविधि करवानी होय छे।
प्रस्तारनो दरेक प्रकार मंगलमय छ। तेमा मुख्यता विधिनी (आम्नायनी) छे। * वरुण जलतत्त्वनो देव छ। जुओ—'वारुणमण्डलम् ' श्लो. १२.
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४
5
15
10 १. दिक्
अष्टकाष्ठा
श्लोक
नं. ४
20
अनुवाद : - ( यन्त्रना) मध्यभागमां जंबूद्वीप छे ने तेनी आठ दिशामां क्रमशः अर्हत्, सिद्ध वगेरे पांच नामो अने साथे ज्ञान, दर्शन ने चारित्र स्थापन करवा ॥ ४ ॥
25
१६. मध्ये —- मध्यस्थानमां, यन्त्रनी कर्णिकामां ।
१७. अष्टकाष्ठा -- (जंबूद्वीपनी) आठ दिशा । दिशा दश छे; परंतु स्तवमां आठना अंकनी मुख्यता होवाथी अहीं ' अष्टकाष्ठा 'नो निर्देश छे । यन्त्रनी उपरनी दिशामां ब्रह्मा तथा नीचेनी दिशामां नागेन्द्र आलेखन करवामां आवे छे ते प्रणालिका प्रमाणे थाय छे; परंतु अहीं स्तवमां ते विशे निर्देश नथी ।
२. बीज
ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्
मध्ये जम्बूद्वीपस्तर्दष्टकाष्ठाक्रमेण 'संस्थाप्यम् । अर्हत्-सिद्धाद्यभिधापञ्चकयुग् ज्ञान-दर्शन- चारित्रम् ॥ ४ ॥*
श्लोक
नं. ६
* सरखावो
आठना अंकनी मुख्यता दर्शावती तालिका +
३. पद
पदाष्टक श्लोक नं. ७ अष्टमन्त्रपद श्लोक नं. १०
४. ग्रह
ग्रहाष्टक श्लोक
नं. ९
५. कूटाक्षर ६. कमलदल ७. अधिष्ठान
द्वयष्टौ
चतुर्युगम् श्लोक
नं. १८
चार अष्टक श्लोक नं. ११
१८. संस्थाप्यम् – सम्यक् रीते ( विधिपूर्वक ) स्थापन करवुं - आलेख, कोखुं अथवा कोतर |
. चारित्रम् - अर्हत्, सिद्ध आदि पांच नामो अने साथै ज्ञान, दर्शन, चारित्र स्थापन करवा । आ तो केवळ निर्देश पूरतुं दर्शावायुं छे, परंतु तेनी आम्नाय श्लोक नं. ७ मां आवशे ।
१९. अर्हत..
जम्बूवृक्षधरो द्वीपः क्षारोदधिसमावृतः । अर्हदाद्यष्टकैरष्टकाष्ठाधिष्ठैरलङ्कृतः ॥ ११ ॥
सदिक्
पत्रम्
श्लोक
नं. १४
८. हढ़ीकरणनो काल
अष्टमासान् श्लोक
नं. २९
+ सरखावो—
अष्टवर्गा
मातृका,
अष्टौ लोकपालाः, अष्टौ दिशः, अष्टौ नागकुलानि, आणिमाद्यष्टकम्, विद्याष्टकम्, कामाष्टकम्, सिद्धाष्टकम्, पीठाष्टकम्, योगिन्यष्टकम्, भैरवाष्टकम्, क्षेत्रपालाष्टकम्, समयाष्टकम्, धर्माष्टकम्, योगाष्टकम् पूजाष्टकम्, यत्किंचिद् अष्टकं तत्सर्वे मातृकाष्टकवर्गकण्ठलग्नसंलीनं ज्ञातव्यम् ।
- श्री त्रिपुरा भारती- लघुस्तवस्य पञ्जिकानाम विवृतिः पृ. ३४. श्रीसोमतिलकसूरिकृत.
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ऋषिमण्डलस्त वयन्त्रालेखनम्
औदावंशे फैणी शम्भुर्वर्णश्चन्द्रकलायुक् ।
द्वि-चतुः पञ्च-पट्-सप्ताष्ट-दशार्कस्वरभृत् क्रमात् ॥ ५ ॥ *
अनुवादः - प्रथम अंश फणी (र् ) । पछी शंभु (हू) हू वर्ण चन्द्रकला अने गगनसहित (~ ) (हूँकार अने ते) अनुक्रमे बीजो (आ) चोथो (ई) पांचमो ( उ ) छट्ठो (ऊ) सातमो (ए) आठमो (ऐ) दशमो (औ) बारमो (अः) स्वरयुक्त........॥ ५ ॥
२०. आदावंशे - आदौ + अंशे । बीजाष्टकनो आदि अंश दर्शावायो एटले उत्तरांश अध्याहार रहे छे । आठे बीजोमा जे ध्रुव अंश छे ते आदि अंश तरीके दर्शावायो छे अने ते अंशने आठ स्वरथी अंजन करतां जे स्वर सहित बीजाक्षरो प्राप्त थाय ते उत्तरांश समजवा ।
w
२२. चन्द्रकला — कला के जेनी संज्ञा छे । २३. अभ्र - शून्य के जेनी संज्ञा • छे
।
२१. फणी शम्भुः - फणी - फणा एटले र् । शम्भु - शंकर एटले हू । र् वाळो ह् = ह् + र् जे बीजाष्टकम ध्रुव अंश छे ।
10
* सरखावो :
२४. स्वरभृतु — दर्शावेला क्रम प्रमाणे स्वरनुं अंजन करतां आठ बीजो नीचे प्रमाणे मळे छे— हूँ हूँ।
(१) पूर्व प्रणवतः सान्तः, सरेको द्वयब्धिपञ्चषान् ।
५
सप्ताष्ट-दश- सूर्याङ्कान् श्रितो बिन्दुस्वरान् पृथक् ॥ ९ ॥
-- ऋषिमण्डलस्तोत्रम् (२) कुण्डलिनी भुजगाकृति (ती) रेफाश्चित हः शिवः स तु प्राणः । तच्छतिर्दीर्घकला माया तद्वेष्टितं जगद्वश्यम् ॥ ४४० ॥
- श्रीसिंह तिलकसूरिरचितं ' मन्त्रराजरहस्यम् '
अनुवाद:- • रेफथी युक्त ह (हू) ते भुजग (सर्प) नी आकृतिवाळी कुण्डलिनी छे । केवळ 'ह' ते शिव छे। ते प्राण छे । दीर्घकला (1) ते तेनी शक्ति माया छे । मायाथी वेष्टित ( मोहित) जगत् छे । तात्पर्य के जगत् कारना ध्यानथी वश थाय छे।
८
षष्ठस्वरयुतोऽरिनो धूम्रवर्णः स एव हि ।
पूज्यतां विजयं रक्षां दत्ते ध्यातोऽस्य कुक्षिगः ॥ २८ ॥ विसर्गद्वयसंयुक्तः स एव श्यामलद्युतिः ।
हूँ जिनवामकटीसंस्थः प्रत्यूहव्यूहनाशनः ॥ २९ ॥ हूः
♡
हाँ हाँ हूँ हूँ ह्रीँ हूँ: -- आ सघळा दीर्घ बीजाक्षरोने कोई षड्जातिमायाबीज कहे छे। अहीं बीजाष्टक जोईतुं 25 होवाथी प्रचलित बीजाक्षरोमां हूँ तथा हूँ जे बन्नेने मंत्रवादीओ ह्रस्व गणे छे ते उमेरवामां आव्या छे । दीर्घ बीजाक्षरो देवीना वाचक मनाय छे अने हस्व बीजाक्षरो भैरवना वाचक मनाय छे। आ बीजाक्षरो पैकी चार बीजाक्षरगर्भित वर्णनवाळा श्लोको नीचे प्रमाणे मळे छे :
शून्यवहून्यक्षरभवः प्रभवः सर्वसम्पदाम् ।
नादबिन्दुकलोपेतः साकारः पञ्चवर्णरुक् ॥ २५ ॥ वामातनूजवा मांस संस्थितो रूपकीर्तिदः । धनपुण्यप्रयत्नानि जयज्ञाने ददात्यसौ ॥ २६ ॥ स एव स्वरसंयुक्तः स्थितो हस्ते जिनेशितुः । योगिभिर्थ्यायमानस्तु रक्ताभोऽतिशयप्रदः || २७ ॥
5
- श्रीसागरचन्द्रसूरिविरचितः 'श्रीमन्त्राधिराजक : 'ल्प (श्रीजैनस्तोत्रसन्दोह पृष्ठ २३६).
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अनुवाद:- पछी परमेष्ठी वाचक प्रथम अक्षरो — पहेला पांच (अ सि आ उ सा) व्यारबाद 'ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यो नमः ' - आ मंत्र छे । ते पदाष्टक तथा बीजाष्टकथी उज्ज्वळ छे ॥ ६ ॥
ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रा लेखनम्
२५. परमेष्ठ्यक्षराश्चाद्याः परमेष्ठि + अक्षराः + च + आद्याः -- पांच परमेष्ठीना आदि अक्षरो- -असि आ उ सा ।
परमेष्ठ्यक्षराचाद्याः, पञ्चातो "ज्ञान-दर्शन
चारित्रेभ्यो नमः” मन्त्रः पदवीजाष्टकोज्ज्वलः ॥ ६ ॥ *
[ मन्त्रोद्धारः - जाप्यमन्त्रः - ]
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' ँ हाँ ही हूँ हूँ है है हो हू: अ सि आ उ सा ज्ञान-दर्शन- चारित्रेभ्यो नमः || ”
२६. पदाष्टकः --आठ पदो । 'अ सि आ उ सा' ना पांच पदो तथा 'ज्ञान, दर्शन अने 10 चारित्रना' त्रण मळी आठ पदो ।
15
२७. बीजाष्टकः— हूँ हूँ हुँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ: – सामान्य बीजना धर्मो जेमां होय ते बीज कहेवाय छे । जेम बीजमांथी फणगो- अंकुरो अने फळ निपजे छे तेम आ बीजाष्टकमांथी शान्त्यादि अर्थक्रियारूप फळ निपजे छे ।
१८. उज्ज्वलः - मंत्र पदाष्टकथी तथा बीजाष्टकधी अलंकृत छे ।
20
* सरखावोः -
(१) 'ऋषिमण्डलस्तोत्र' मां जाप्यमन्त्र आ प्रकारे दर्शान्यो छे :
"
' ँ हूँ ही हूँ हूँ हूँ: असिआ सा सम्यग् दर्शन- ज्ञान - चारित्रेभ्यो नमः || ”
पूज्यनामाक्षरा आद्याः, पञ्चातो ज्ञान-दर्शन
चारित्रेभ्यो नमो मध्ये, ह्रौ सान्तः समलङ्कृतः ॥ १० ॥
(२) इदमेव हि बीजम् ' अधोरेफ - आ-ई-ऊ- - अं अः ' एतैर्युक्तं बीजं भवतीति व्यापकत्वं चास्य । - श्रीसिद्ध हे मशब्दानुशासनम् ।
अनुवाद:- आ (हकार ) बीज-नीचे रेफ तथा आ, ई, ऊ, औ, अं, अः - एवा छ स्वरो पैकी कोईथी युक्त थतां बीज बने छे । ए ज एनी व्यापकता छे ।
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्
औंदावो 'हाँ प्रभृत्येकं, बीजैयुगं ततो नमः । मध्येऽर्हद्भ्यः सिद्धेभ्य इति दिक्षु पदाष्टकम् ॥ ७ ॥
अनुवादः—प्रारंभमां—ओ अने हाँ वगेरेमांथी एक बीज एम वे बीजको- ते पछी नमः मां अर्हद्भयः सिद्धेभ्यः ए प्रमाणे दिशाओमां आठ पदो (लखवां) ॥ ७ ॥ *
अनुवाद:- तेओनी पछी क्रमशः इन्द्र, अग्नि, यम, नैर्ऋति तथा वरुण, वायु, कुबेर अने ईशान अनुक्रमे (लखवा-आलेखवा ) ॥ ८ ॥
ऐषामधः क्रमादिन्द्राग्नि- यमा नैर्ऋतिस्तथा । वरुणो वायु-कुबेरावीशानश्च यथाक्रमम् ॥ ८ ॥
एषामधो रविश्चन्द्र- मङ्गलौ बुध - वाक्पती ।
भार्गवः शनि-राहू च लिखेद् दिक्षु ग्रहाष्टकम् ॥ ९ ॥
अनुवाद:- तेओनी पछी सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि अने राहु ए प्रमाणे आठ प्रहो (आठ) दिशामां लखवा ॥ ९ ॥
२९. आदावा - आदौ + ओ ( ँ) - आदौ पछी 'अंशे ' अध्याहार छे । आठ दिशा माटे पदाष्टकना पहेला अंशमां बॅंकार ।
३०. हाँ प्रभृत्येकं - हाँ थी हूः सुधीना बीजाष्टकमांथी एक ।
३१. बीजयुगम् — बे बीज । तँ हाँ — ॐ ह्री वगेरे बे बीजाक्षरो ।
३२. एषामधः - तेओनी पछी । उपर जे विधिक्रम दर्शावायो त्यारपछी ।
३३. क्रमात् -आलेखन माटे विधि अथवा आम्नायना क्रम प्रमाणे क्षारान्धिवलयजंबूद्वीप - अष्टकाष्ठात्रलय तेमां बीजाक्षर पदाक्षर पछी लोकपालो ।
Added এGe
* ँ हूँ अद्भयो नमः
ॐ ह्री सिद्धेभ्यो नमः आचार्येभ्यो नमः
३४. यथाक्रमम् — लोकपालोने दर्शावेला क्रम प्रमाणे आलेखवा ।
20
३५. ग्रहाष्टकम् – ग्रह नत्र छे; परंतु अहीं स्तवमां अष्टकनी मुख्यता होवाथी केतुने गौण करी राहु साथे आलेखाय छे
1
उपाध्यायेभ्यो नमः
साधुभ्यो नमः
ज्ञानाय नमः
दर्शनाय नमः
चारित्राय नमः
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३॥
॥ ४ ॥
॥ ५ ॥
॥ ६॥
॥७॥
11 2 11
पूर्व
अग्नि
दक्षिण
नैर्ऋत
पश्चिम
वायव्य
उत्तर
ईशान
5
'नमः सर्वसाधुभ्यः, ॐ ज्ञानेभ्यो नमो नमः ।
नमः तत्त्वदृष्टिभ्यः, चारित्रेभ्यस्तु ॐ नमः ॥ ५ ॥
श्रेयसेऽस्तु श्रिये त्वेतत्, अर्हदाद्यष्टकं शुभम् । स्थानेष्वष्टसु विन्यस्तं पृथग्बीजसमन्वितम् ॥ ६ ॥
10
सरखावो -
' ँ नमोऽर्हद्भ्य ईशेभ्यः, तँ सिद्धेभ्यो नमो नमः ।
- नमः सर्वसूरिभ्यः, उपाध्यायेभ्यः ॐ नमः ॥ ४ ॥ 25
15
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम् अष्टमन्त्रपदै रक्षा, स्वशिखा-मस्तकाक्षिषु।। नासिका-मुख-घण्टीषु, नाभि-पादान्तयोः क्रमात् ॥ १० ॥
अनुवादः—(पूर्वे दर्शावेला) आठ मंत्रपदो वडे अनुक्रमे पोताना शिखा (चोटली), मस्तक, आंख, नासिका, मुख, घंटिका, नाभ्यन्त (घंटिकाथी नाभि सुधी) अने पादान्त (नाभिनी नीचे पगना अंत सुधी) 5 रक्षा (माटे न्यासनी प्रक्रिया) करवी ॥१०॥
तन्मध्ये पीतवलयं, सुमेरुस्तन्निरक्षरम् ।। तदन्त द्वि त्रिशैः कूटः, काद्यैः क्षान्तैः सुंधांशुभम् ॥ ११ ॥
अनुवादः-तेनी वचमां पीळा वर्णनुं वलय करवू ते निरक्षर छ। सुमेरुस्वरूप छे। तेने छेडे (अंते) बत्रीश कूटो-कथी लईने क्ष सुधीना कराय तेथी चंद्र अने तारावाळु आ वलय छे ॥११॥
10 ३६. अष्टमन्त्रपदैः-दिशा माटे जे आठ मंत्रपदो निर्णीत थया ते वडे ।
३७. रक्षा-देहना आठ आधारस्थानो माटे अहीं रक्षानो निर्देश छे; परंतु नाभि-पादान्तयोः एटले नाभ्यन्त अने पादान्त-आ प्रकारे घंटिकाथी नाभि सुधीना अने नाभिथी पाद सुधीना सथळा आधारस्थानोनी रक्षानो निर्देश थाय छे ।
रक्षा माटेना मंत्रपदोनु संयोजन नीचे प्रमाणे :15 १. ऊँ हाँ अर्हद्भ्यो नमः शिखायाम् । ५. उ है साधुभ्यो नमः मुखे । २. ऊँ ह्री सिद्धेभ्यो नमः मस्तके।
६. ऊँ हूँ ज्ञानेभ्यो नमः घण्टिकायाम्। ३. ऊँ हूँ आचार्येभ्यो नमः अक्ष्णोः । ७. ऊँ ह्रौ दर्शनेभ्यो नमः नाभ्यन्तेषु । ४. ऊँ हूँ उपाध्यायेभ्यो नमः नासिकायाम्। ८. ॐ हू: चारित्रेभ्यो नमः पादान्तेषु ।
३८. तन्मध्ये तेनी मध्यमां। यंत्रनी आकृतिनो प्रकार श्लोक नं. २ थी श्लोक नं. १० 20 सुधीमां यथाविधि तथा यथाक्रम निर्णीत थयो । ते प्रकारना मध्यभागमां-अंतर्भागमां-जंबूद्वीपना वलयमां।
३९. पीतवलयम्-पीळा रंगनुं वलय । ४०. सुमेरुः–मेरु पर्वत-स्वर्णाद्रि । ४१. तन्निरक्षरम्-पीत वलयमा अक्षरनी स्थापना करवानी नथी ।
सरखावो :* आद्यं पदं शिखां रक्षेत्, परं रक्षेत् तु मस्तकम् । तृतीयं रक्षेन्नेत्र द्वे, तुर्य रक्षेच्च नासिकाम् ॥७॥ पञ्चमं तु मुखं रक्षेत् षष्ठं रक्षेच्च घण्टिकाम् । नाभ्यन्तं सप्तमं रक्षेत् , रक्षेत् पादान्तमष्टकम् ।।८॥ + (१) तन्मध्ये सङ्गतो मेरुः कटाक्षरैरलङ्कृतः । उच्चैरुच्चैस्तरस्तारः, तारामण्डलमण्डितः ॥१२॥
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्
४२. तदन्त–तेने छेडे ।
४३. कूटः--कूटाक्षरो वडे । संयुक्ताक्षरो वडे। (संयुक्तः कूट इति व्यवहीयते ।) कूटाक्षरनी तालिका नीचे प्रमाणेक्यूँ ___ म्ल्यू
ङ्ल्यू इम्यूँ ड्यू दम्ल्यू म्यूँ दम्ल्यू
न्म्ल्यू फ्यूं ब्यूँ
म्यूँ
म्यूँ श्यूँ स्म्यू
ल्यू
10 आ तालिकामा प्रकार तथा लकारनो कूटाक्षर आपवामां आव्यो नथी। तेनुं कारण नीचेना श्लोकथी समजाशेः
प्रागुक्तद्वात्रिंशत्रस्तुतिपदपर्यन्ततः क्रमात् काद्याः । क्षान्ता ब्लौ त्यक्त्वाऽमी कूटाः कार्ये महति योज्याः ।। ४८४ ॥
-श्री. सिंहतिलकसूरिविरचितम् 'मन्त्रराजरहस्यम्'। 15 + सरखावो :(२) देहेऽस्मिन्वर्तते मेरुः सप्तद्वीपसमन्वितः ।
त्रैलोक्ये यानि भूतानि तानि सर्वाणि देहतः । सरितः सागराः शैलाः क्षेत्राणि क्षेत्रपालकाः ॥
मेरुं संवेष्टय सर्वत्र व्यवहारः प्रवर्तते ॥ ऋषयो मुनयः सर्वे नक्षत्राणि ग्रहास्तथा ।
जानाति यः सर्वमिदं स योगी नात्र संशयः । पुण्यतीर्थानि पीठानि वर्तन्ते पीठदेवताः ॥
ब्रह्माण्डसंज्ञके देहे यथादेशं व्यवस्थितः ॥ 20 सृष्टिसंहारकर्तारौ भ्रमन्तौ शशिभास्करौ। नभो वायुश्च वह्निश्च जलं पृथ्वी तथैव च ॥
-शिवसंहिता, पटल-२
.
अनुवाद:
आ देहमा सात द्वीपोथी युक्त एवो मेरु, सर्व नदीओ, सागरो, पर्वतो, क्षेत्रो, क्षेत्रपालो, ऋषिओ, मुनिओ, नक्षत्रो, ग्रहो, पवित्र तीर्थो, देवता(महाचैतन्य)थी अधिष्ठित पीठो, पीठदेवताओ, सृष्टिनी उत्पत्ति-स्थिति-विनाश 25 करनारा ब्रह्मादि, परिभ्रमण करनारा सूर्यचंद्र, आकाश, वायु, अग्नि, जल अने पृथ्वी वगेरे त्रणे लोकनी अंदर जेटली पण सवस्तुओ छे, ते बधी आ देहमा छ। देहनी मध्यमां मेरु अने तेने वींटीने उपरनी सर्व वस्तुओ रहेली होवाथी आ देहवडे सर्वत्र व्यवहार प्रवते छ (१)। आ बधुं जे जाणे छे, ते ब्रह्मांडनामक देहमां उचित रीते व्यवस्थित (रहेलो) योगी छे, एमां संदेह नथी। सारांश:
30 मनुष्य शरीररूपी पिंड विशाल ब्रह्मांडनी प्रतिमूर्ति छ। जे शक्तिओ आ विश्वने चालु राखे छे ते सघळी आ नरदेहमा विद्यमान छे। आ कारणे स्थाने स्थाने मनुष्यदेहनो महिमा गावामां आवे छे।।
जे प्रकारे भूमंडलनो आधार मेरुपर्वत छे ते प्रकारे मनुष्यदेहनो आधार मेरुदंड अथवा करोडरज्ज छ। करोडरज्जु तेत्रीस अस्थिखंडोना जोडावाथी बन्यु छे। करोडरज्जु अंदरथी पोलुं छे अने नीचेनो भाग नाना नाना. अस्थिखंडोनो छे। त्यां कंद छे अने तेनी आसपास जगतना आधार महाशक्तिरूप कुंडलिनी अथवा प्राणशक्ति रहे छे। 35 ऋ.मं.२
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम् तैदूर्ध्व ही स्वरान्तस्थ-सान्त सिंहासनो जिनः । ही "त्रिरेखयाऽऽवेष्टय, बहिर्वारुणमण्डलम् ॥१२॥
अनुवादः-ह, र्, ई (उपलक्षणथी .. १) ए छे सिंहासन जेनुं एवो हीकार स्वरूप जिन तेनी उपरना भागे स्थापन करवो। (अर्थात् अहीं जे हीकारनुं आलेखन छे ते सिंहासनरूप छे अने 5 तेनी उपर जे २४ जिनवरोनुं आलेखन छे ते ह्रीकार स्वरूप जिनवरो छे)। (तथा) ह्रीकारनी त्रण रेखाथी वारुणमंडलनी बहारनो भाग आवेष्टन करवो ॥१२॥
सर्वे कूटाक्षरोमां प्रथम अक्षरो अनुक्रमे क् थी क्ष सुधीना व्यंजनो छे। तेमांथी बे अक्षर उपर दर्शाच्या प्रमाणे बाद करवामां आव्या छे। बीजो अक्षर मंकार छे। मकारने आराधकनो आत्मा
मानवामां आवे छे । तेने मूलाधारचक्र, स्वाधिष्ठानचक्र, मणिपूरचक्र तथा अनाहतचक्र साथे जोडवा माटे 10 ते ते चक्रोना बीजाक्षरो जे अनुक्रमे ले व् ₹ थाय छे ते तेनी साथे संयुक्त करवामां आवे छे ।
उकारनु दीर्घस्ररूप देवतानी प्रसन्नता माटे छे अने नादानुसंधान माटे कला तथा बिंदु छ । कूटाक्षरो द्वारा प्राण अने मंत्राक्षरोनुं विषुव साधवा माटे प्रक्रिया करवी जोईए ते अहीं गुरुगमथी मेळववी जोईए । आने कोई पिण्डाक्षरो पण कहे छे । ।
४४. सुधांशुभम् – चंद्र अने तारावाळु वलय । 15 ४५. तदूर्ध्वम्-तेनी उपर हीकार त्रण स्वरूपे :
१. ही -श्वेत संज्ञाक्षर-सिंहासन रूपे । २. ,, -ना वाच्य २४ जिनवरोना स्वरूपे । ३. , प्राणशक्ति स्वरूपे । नरदेहमां प्राणशक्ति साडा त्रण आंटा दईने सुषुप्त दशामां
पडी छे। तदनुसार यंत्रदेहने आवेष्टन करीने क्रोंकारथी अंकुशित दर्शाववामां
आवी छ। ४६. स्वर-ईकार ।
४७. अन्तस्थ-रकार। • ४८. सान्त-हकार ।
४९. त्रिरेखया—त्रण रेखाथी । रेखाने मात्रा पण कहे छे । (त्रिर्माया मात्रयाऽऽवेष्टय 25 निरन्ध्यादङ्कुशेन तु)
५०. बहिर्वारुणमण्डलम्-क्षार समुद्रना मंडळनी बहार । (वारुणमण्डलस्य बहिः ।)
20
* सरखावो:
तस्योपरि सकारान्तं, बीजमध्यास्य सर्वगम् । नमामि बिम्बमार्हन्त्य, ललाटस्थं निरञ्जनम् ॥ १३ ॥
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम पौर्थिवीधारणायुक्त्या, पिण्डेंस्थं मन्त्रयुक्तितः । पदस्थमहतो रूपवद् यन्त्रं रूपयुक् ऊमात् ॥१३॥
अनुवादः—आ यंत्र अनुक्रमे पार्थिवी धारणायुक्त होवाथी पिण्डस्थ, मंत्रसहित छे माटे पदस्थ अने अरिहंतना रूपवाळु छे माटे रूपस्थ छे ॥१३॥
तिर्यग्लोसमः क्षाराम्बुधिस्तस्यान्तरमम्बुजम् ।। जम्बूद्वीपः सदिपत्रं, स्वर्णाद्रिस्तत्र कर्णिका ।। १४ ॥ सिंहासनेत्र चन्द्राभे, आत्माऽऽनन्दं परं श्रितः। अर्हन्मयो हृदि ध्येयः, पार्थिवीधारणेत्यसौ ॥१५॥
अनुवादः-क्षाराम्बुधि-लवणसमुद्र ए तिर्यग्लोक समान छे ने तेमां जंबूद्वीप ए दिशाओरूप पत्र सहित-कमळ छे ने तेमां मेरुपर्वत ए कर्णिका--कळी छे । अहीं चन्द्रप्रभा समान प्रभावाळु सिंहासन 10 छे ने तेमां परम आनंदने प्राप्त अने अरिहंतरूपे निजात्मानुं ध्यान हृदयमां करQ । ए प्रमाणे आ पार्थिवी धारणा छे ॥१४-१५॥
५१. पार्थिवीधारणायुक्त्या यंत्रनु आयोजन पार्थिवी धारणाने अनुरूप छे तेथी। ५२, पिण्डस्थम्-पिण्डस्थ ध्यानने अनुकूळ छे । * ५३. मन्त्रयुक्तितः-जाप्यमन्त्र युक्त छे तेथी। ५४. पदस्थम्-पदस्थ ध्यानने अनुकूळ छे। ५५. अर्हतः रूपवत्-२४ जिनवरोना (जिनावलीना) रूपy (बिम्बनूं) आलेखन होवाथी। ५६. रूपयुक्-रूपस्थ ध्यानने अनुकूळ छे। ५७. क्रमात्-ध्यानमां पण पहेला पिण्डस्थ पछी पदस्थ अने पछी रूपस्थ ए क्रमे थ, जोईए।
५८. तिर्यग्लोकसमः-श्री हेमचन्द्राचार्यविरचित 'योगशास्त्र'ना सप्तम प्रकाशमां पार्थिवी 20 धारणा अंगे श्लोक नं. १०, ११ अने १२ मां वर्णन आवे छे। ते त्रण श्लोकनो सार अहीं श्लोक नं. १४-१५
46 पिण्डस्थ वगेरे ध्यानने मळती प्रक्रियाओ इतरोमां नीचे प्रमाणे जोवामां आवे छे:जैन संज्ञा इतरोनी संज्ञा
तेनी इतरोमां दर्शावेल समजूति
अहीं वस्तु तथा उपलब्धि बन्ने होय अने पिण्डस्थ ध्यान
व्याप्ति
प्रमेयनी मुख्यता वर्ते छ।
अहीं वस्तु विद्यमान न होय छतां उपलब्धि पदस्थ ध्यान
महान्याप्ति
होय अने प्रमाणनी मुख्यता वर्ते छे।
अहीं अवस्तु अने अनुपलभ छतां वैद्यरूपस्थ ध्यान
प्रचय
च्छायनी वृत्ति वर्ते छे। रूपातीत ध्यान
महाप्रचय
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम् रेफः सान्तः शिरश्चन्द्रकलानं नाद ईश्व(स्व)रः । सशिरोरेफ-हः पीतः, कला रक्ताऽसितं वियत् ॥ १६ ॥ नादः श्वेतः स्वरः तुर्यो, नीलो वर्णानुगा जिनाः । चन्द्राभसुविधी नादः, शून्यं श्रीनेमि-सुव्रतौ ॥ १७॥ कला षडर्कसंख्यौ स्यात् पार्श्व-(श्च)मल्लिरीश्व(स्व)रः । सशिरो-रेफ-हो द्वथष्टौ (१६), जिना इति चतुर्युगम् ।। १८ ॥+
अनुवादः-रेफे (र) सान्त (ह) शिर (माथु) चन्द्रकला (अर्ध चन्द्रकला ) अभ्रे (बिन्दु) नार्दै (.) ईकार स्वर-(आटलां अंगो हीकारना छ ।)
___ माथु (शिरोरेखा) अने रेफ सहित ह कार (हृ) (१-२-३) नो वर्ण पीत छ । अर्ध चन्द्रकला 10 (४) नो वर्ण लाल छे । बिन्दु (५) नो वर्ण श्याम छे। नाद (६) नो वर्ण श्वेत छे । चोथा स्वर (ई-७)
नो वर्ण नील छे । वर्णानुसारे (रंग प्रमाणे ) जिनो( नी स्थापना) छे। श्री चन्द्रप्रभ अने श्री सुविधिनाथ (नुं स्थान ) नाद (६) छे। श्री नेमिनाथ अने श्री मुनिसुव्रतस्वामी(नुं स्थान ) शून्य-बिंदु (५) छे । छट्ठा ने बारमा-श्री पद्मप्रभस्वाभी अने श्री वासुपूज्यस्वामी (नुं स्थान ) कला (४) छे । श्री पार्श्वनाथ अने
श्री मल्लिनाथ (नुं स्थान) ई स्वर (७) छे । माथु (शिरोरेखा) अने रेफ सहित ह कार (ह) (१-२-३) 15 ते १६-(बे वार आठ) जिनो (नुं अधिष्ठान ) छे । (ते आ प्रमाणे :- ऋषभ--अजित-संभव-अभिनन्दन
सुमति-सुपार्श्व-शीतल-श्रेयांस-विमल-अनंत-धर्म-शान्ति-कुन्थु-अर-नमि-वर्धमान)-आ प्रमाणे चार युगल छे ॥१६-१७-१८॥5
मां आवी जाय छ। पार्थिवी धारणानुं सुंदर चित्र अहीं उपलब्ध थाय छे। अहीं हुं अरिहंत स्वरूप छं तेवा ध्येयनी (प्रमेयनी) मुख्यता वर्ते छे। *
20 श्लोक नं. १६ थी २० एम पांच श्लोकोमा पदस्थ ध्याननो निर्देश छे। श्लोक नं. १६-१७-१८ मां हीकारना __ सात अवयव माटे पांच वर्ण (रंग) निर्णीत करी ते पांच वर्णानुसारे जिनावलिनुं नियोजन करवामां आव्युं छे। आथी हीकार जिनमय थाय छे ।
• सरखावो:
तिर्यग् लोकसमं ध्यायेत् क्षीराब्धि तत्र चांबुजं । सहस्रपत्रं स्वर्णाभं जंबुद्वीपसमं स्मरेत् ॥१०॥ तत्केसरततेरंतः स्फुरत्पिंगप्रभांचिताम् । स्वर्णाचलप्रमाणां च कर्णिकां परिचिंतयेत् ॥११॥ श्वेतसिंहासनाऽऽसीनं कर्मनिर्मूलनोद्यतं । आत्मानं चिंतयेत्तत्र पार्थिवीधारणेत्यसौ ॥ १२ ॥
योगशास्त्र-सप्तम प्रकाशः + जुओ सामे पृष्ठ
25
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्
दोsन्तः कला सिद्धाः, सान्तः सूरिः स्वरोऽपरे । बिन्दुः साधुरितः पञ्चपरमेष्ठिमयस्त्वसौ ।। १९ ।। *
-
अनुवादः- - नाद (६) ए अरिहंत छे, कला (४) ए सिद्ध छे, सान्त - ह (१-२-३) ए सूरि छे, स्वर (ई-७) ए (अपरे - ) उपाध्याय छे, बिंदु (५) ए साधु छे । ए प्रमाणे आ ही कार पंचपरमेष्ठिमय छे ॥ १९॥
22
५९. पञ्चपरमेष्ठिमय : – ह्रीकारना सात अवयवने पांच परमेष्ठिना वर्णोमां विभाजन करी ते पंचपरमेष्टिस्वरूप जिनोनुं ते ते अवयवमां ते ते वर्ण स्वरूपे नियोजन करवामां आव्युं छे । आथी हीकार पंचपरमेष्ठिमय थाय छे ।
+ सरखावो
अस्मिन् बीजे स्थिताः सर्वे, ऋषभाद्या जिनोत्तमाः । वर्णैर्निजैर्निजैर्युक्ताः, ध्यातव्यास्तत्र सङ्गताः ॥ २१ ॥ नादश्चन्द्रसमाकारो, बिन्दुर्नीलसमप्रभः । कलारुणसमा सान्तः, स्वर्णाभः सर्वतोमुखः ॥ २२ ॥ शिरः संलीन ईकारो, विनीलो वर्णतः स्मृतः । वर्णानुसार संलीनं, तीर्थकृन्मण्डलं स्तुमः ॥ २३ ॥ चन्द्रप्रभ - पुष्पदन्तौ, 'नाद' स्थितिसमाश्रितौ । 'बिन्दु' मध्यगतौ नेमि - सुव्रतौ जिनसत्तमौ ॥ २४ ॥ पद्मप्रभ-वासुपूज्यौ, 'कला' पदमधिष्ठितौ । 'शिर '-' ई ' स्थितिसंलीनौ, पार्श्वमल्ली जिनोत्तमौ ॥ २५ ॥ चन्द्रप्रभपुष्पदन्तौ नादस्थौ कुन्दसुन्दरौ ॥ ३७ ॥
नाभिपद्मस्थितं ध्यायेत् पञ्चवर्ण जिनेशितुः । तस्थुर्हरे षोडशामी सुवर्णद्युतयो जिनाः ॥ ३३ ॥ ऋषभोऽप्यजितस्वामी सम्भवोऽप्यभिनन्दनः । सुमतिः श्रीसुपार्श्वः श्रीश्रेयांसः शीतलोऽपि च ॥ ३४ ॥ विमलो ह्यनन्तजिनो धर्मः श्रीशान्तितीर्थकृत् । कुन्थुनाथो ह्यरजिनो नमिनाथो वीर इत्यपि ।। ३५ ।। कारे संस्थितौ पार्श्वमल्ली नीलौ जिनेश्वरौ । पद्मप्रभवासुपूज्यावरुणाभौ कलास्थितौ ॥ ३६ ॥ सुव्रतो नेमिनाथस्तु कृष्णाभौ बिन्दुसंस्थितौ ।
शेषास्तीर्थकृतः सर्वे 'ह-र 'स्थाने नियोजिताः । मायाबीजाक्षरं प्राप्ताश्चतुर्विंशतिरर्हताम् ॥ २६ ॥ ऋषभं चाजितं वन्दे, सम्भवं चाभिनन्दनम् | श्रीसुमति सुपार्श्व च, वन्दे श्रीशीतलं जिनम् ॥ २७ ॥ श्रेयांसं विमलं वन्देऽनन्तं श्रीधर्मनाथकम् । शान्ति कुन्थुमराईन्तं, नमिं वीरं नमाम्यहम् ॥ २८ ॥ षोडशैवं जिनानेतान्, गाज्ञेयद्युतिसन्निभान् । त्रिकालं नौमि सद्भक्त्या, 'ह-रा 'क्षरमधिष्ठितान् ॥ २९ ॥
— श्री ऋषिमण्डलस्तोत्रम्
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हितं जयावहं भद्रं कल्याणं मङ्गलं शिवम् | तुष्टि पुष्टिकरं सिद्धिप्रदं निर्वृतिकारणम् ॥ ३८ ॥ निर्वाणाभयदं स्वस्तिशुभधृतिरतिप्रदम् । मतिबुद्धिप्रदं लक्ष्मीवर्द्धनं सम्पदां पदम् ॥ ३९ ॥ त्रैलोक्याक्षरमेनं ये संस्मरन्तीह योगिनः । नश्यत्यवश्यमेतेषामिहामुत्रभवं भयम् ॥ ४० ॥
- श्री जैनस्तोत्रसन्दोह, पृष्ठ २३६- २३७ ( श्री मन्त्राविराजकल्पः )
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20
* श्लोक नं. १६-१७-१८ मां तथा श्लोक नं. १९ मां अधिष्ठानना आलेखननो प्रकार तो एक ज छे, परंतु अपेक्षा भिन्न छे ।
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम् + अन्यत्र विशेषः
अर्हन्तो वृत्तकला त्रिकोण-सिद्धस्तु शीर्षकं सूरिः।
चन्द्रकलोपाध्यायो दीर्घकला साधुरिह पञ्च ॥ २० ॥
अनुवादः-अन्य स्थळे प्रकारविशेष नीचे प्रमाणे मळे छ :5 गोळ कला जे बिन्दुनी छे ० (५) ते अरिहंत छ। त्रिकोण जे नाद छे (६) ते सिद्ध छ। शीर्षयुक्त सर्व ---माथु ह ने र—(ह-१-२-३) ए सूरि छ। चन्द्रकला (४) ए उपाध्याय छे अने दीर्घकला जे ईकारनी छे (७) ते साधु छ । एम अहीं एटले हीकारमां पांच (परमेष्ठी) छे ॥२०॥
- बीजाक्षर होकारना अंशो तथा वर्णोना ध्यान माटे कोष्टक
[श्लोक १६-१७-१८-१९ मुजब]
बीजाक्षरना अंशोनुं
अंश आलेखन
वर्ण
ध्यातव्य परमेष्ठिपंचक
ध्यातव्य तीर्थकृन्मंडल
Mhe
पीत
आचार्य (सूरि)
बाकीना १६ तीर्थकरो
रेफ ह (सान्त)
शिर चन्द्रकला बिंदु(अभ्र)
नाद
15
or moru,
रक्त
श्याम
सिद्ध साधु अरिहंत उपाध्याय
श्री पद्मप्रभ, श्री वासुपूज्य श्री नेमिनाथ, श्री मुनिसुव्रत श्री चन्द्रप्रभ, श्री सुविधिनाथ . श्री पार्श्वनाथ, श्री मल्लिनाथ
श्वेत
स्वर
नील
बीजाक्षर हीकारना अंशो तथा वर्णोना ध्यान माटे कोष्टक
[श्लोक २० मुजब]
20
बीजाक्षरना | अंशोनुं
अंश आलेखन
__वर्ण
ध्यातव्य परमेष्ठिपंचक
ध्यातव्य तीर्थकृन्मंडल
rrm
शीर्षक
her
पीत
S
आचार्य (सूरि)
बाकीना १६ तीर्थकरो
)
नील श्वेत
चन्द्रकला वृत्तकला त्रिकोण दीर्घकला
उपाध्याय अरिहंत
.
श्री मल्लिनाथ, श्री पार्श्वनाथ श्री चन्द्रप्रभ, श्री सुविधिनाथ श्री पद्मप्रभ, श्री वासुपूज्य श्री नेमिनाथ, श्री मुनिसुव्रत
सिद्ध
श्याम
साधु
,
30 + श्री नमस्कार संबंधी श्री मानतुङ्गसूरिनु 'नवकारसारथवणं' नामर्नु एक स्तोत्र 'नमस्कार स्वाध्याय' ना प्राकृत विभागमां आपेल छे। तेमां जे प्रकारविशेष उपलब्ध थाय छे तेनो अहीं निर्देश करवामां आव्यो छे। $ सरखावो:- वट्टकला अरिहंता तिउणा सिद्धा य लोढकल सूरी। उवज्झाया सुद्धकला दीहकला साहूणो सुहया ॥१०॥
- नवकारसारथवणं (न. स्वा. प्रा. वि. पृ. २६३)
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम् अर्हन्तः शशि-सुविधी सिद्धाः पद्माभ-वासुपूज्यजिनौ । धर्माचार्याः षोडश मल्लिः पार्थोऽप्युपाध्यायः ॥२१॥ सुव्रत-नेमी साधुर्जिनरूपः शक्ति-शिवमयस्त्वेषः । त्रिपुरुषमूर्तियेयोऽलक्ष्यवपुः सर्वधर्मवीजमिदम् ॥२२॥
अनुवादः-हीकारमा चन्द्रप्रभ अने सुविधि ए बे अरिहंतरूपे, पद्मप्रभ अने वासुपूज्य ए बेह सिद्ध रूपे, १-२-३-४-५-७-१०-११-१३-१४-१५-१६-१७-१८-२१ अने २४ मा जिनेश्वरो आचार्यरूपे, मल्लि अने पार्श्व ए बे उपाध्यायरूपे अने मुनिसुव्रत अने नेमि ए बे साधुरूपे ध्येय छ। आ हीकार जिनरूप छे, शक्ति अने शिवमय छ, त्रिपुरुषमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु अने महेशरूप ?) छे, अने अलक्ष्य शरीरवाळो छ । ते सर्व धर्मना बीजरूप छे । ॥२१-२२॥+
६०. अलक्ष्यवपुः-शब्दब्रह्मनी परा अवस्था जे प्रधान अवस्था छे ते अलक्ष्य छ । तेने शाक्त 10 लोको 'शक्ति' कहे छे, शिवभक्तो 'चिति' कहे छे, योगीओ 'कुण्डलिनी' कहे छे, सांख्यो 'प्रकृति' कहे छे, वेदांतीओ 'ब्रह्म' कहे छे, बौद्धो 'बुद्धि' कहे छे अने जैनो कुण्डलिनी', 'प्राणशक्ति', 'कला' वगेरे कहे छे–तेनुं मूर्तस्वरूप ही कार छ । 'अलक्ष्यवपुः 'वडे रूपातीत ध्यान सूचवाय छे ।
+ श्लोक नं. २१-२२ मां रूपस्थ ध्याननो निर्देश थाय छे। श्लोक नं. २१ मां तथा श्लोक नं. २२ ना पहेला पादमां हीकार ते पंचपरमेष्ठिमय छे ते स्थापित कर्यु । आ प्रकार आगळ श्लोक नं. १७-१८ मां दर्शावायो छे 15 परंतु त्यां हीकारनी संशा अक्षर तरीके मुख्यता हती एटले त्यां पदस्थ ध्यान हतुं । अहीं श्लोक नं. २१ तथा नं. २२ ना पहेला पादमां अधिष्ठान करायेला रूपनी मुख्यता छे अने तेथी रूपस्थ ध्यान छे । अहीं श्लोक नं. २१-२२ मां जैन तथा जैनेतर प्रणालिकाओनो निर्देश थाय छे ते नीचे प्रमाणे :१. ही कार जिनस्वरूप छ। पंचपरमेष्ठि स्वरूपे जिनावलिमय छ।
20 , 'शक्ति' अने 'शिव'मय छ।
'त्रिपुरुषमूर्ति' छे। आथी ते ब्रह्मा, विष्णु अने महेशरूप छे । ,, ध्येय छ। ६. ,, ,, 'अलक्ष्यवपुः' छ । वाणीनी परा अवस्था जे अलक्ष्य छे तेनु मूर्तस्वरूप हीकारमा ज आपी
शकाय। ७... सर्व धर्मना मंत्रबीजरूप अक्षर छ । तात्पर्य के सर्व धर्मो ए बीजाक्षरने माने छ।
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दुष्ट - नृपा: 14 ।। २३ ॥ *
अनुवाद:- अहीं (ऋषिमंडलयंत्रमां ) श्री जिनेश्वर भगवंत संबंधी धर्मचक्र रहेलुं छे । तेनी छाया5 निश्रारूप पंजरमां रहेनारने डाकिनी, राकिनी, लाकिनी, काकिनी, शाकिनी, हाकिनी, याकिनी, सर्प, हाथी, राक्षस, अग्नि, सिंह, दुष्ट अने राजा जोई शकता नथी ॥ २३ ॥ +
६१. धर्मचक्रं - त्रिभुवनपति श्री तीर्थंकर परमात्मानुं ए महान धर्मशस्त्र छे । तेथी अचित्य प्रभावी अनेक उपद्रवो शांत थाय छे। चक्रवर्तिना चक्रनी जेम ते परमात्मानी आगळ चाले छे । ते परमात्माना धर्मत्ररचातुरंतचक्रवर्तित्वने सूचवे छे। ऋषिमंडलयंत्र पोते ज चक्राकृति होवाथी चक्र छे । ते 10 चक्रने जे मनवडे धारण करे छे, ते सर्वत्र अपराजित बने छे ।
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्
जैनमिह धर्मचक्रं तच्छायागर्भगं नैं पश्यन्ति ।
र्डे'-र'-ल'-क'-स(श)-ह°-जा' - (या) - 5' हि-गजाः " रक्षोऽग्नि"-सिंह"
25
६३. न पश्यन्ति - तेने जोई शकता नथी । तेने डरावी शकता नथी । जेना उपर धर्मचक्रनी 15 छाया छेतेना उपर बीजा कोईनी दुष्ट दृष्टि पडी शकती नथी ।
६२. तच्छायागर्भगं— जेम चक्रवर्तिना चक्ररत्नना कारणे तेना निश्रितो सुरक्षित होय छे, तेम ऋषिमंडलमां रहेल धर्मचक्रनी रक्षामां जे मानसिक रीते उपस्थित थयो छे, तेने कोई पण उपद्रवकारक एवा दुष्टादि पीडा न करी शके ।
६४. ड - र... नृपाः — डाकिनी आदि देवीओ, सर्प, हाथी, राक्षस, अग्नि, सिंह, दुष्टो अने राजाओ तेने डरावी शकता नथी ।
* सरखावो:
एतन्मन्त्रप्रभयाऽऽक्रान्त-सूरिर्गिराऽतिशयसिद्धः ।
ड-र-ल-क-स(श)-ह-जा-(या) ऽहि-रिपुप्रभृतिभयात् संघरक्षाकृत् ॥ ४७९ ॥ - श्रीसिंह तिलकसूरिविरचितं " मन्त्रराजरहस्यम् " अर्थः- आ मंत्रना प्रभावथी आक्रान्त श्री सूरिभगवंत वाणी वडे अतिशय समृद्ध थईने डाकिनी आदिथी थता भयथी संघनी रक्षा करे छे ।
डाकिनी शाकिनी चण्डी याकिनी राकिनी तथा । लाकिनी नाकिनी सिद्धा सप्तधा शाकिनी स्मृता ॥ ११ ॥ एतेषां खलु ये दोषास्ते सर्वे यान्ति दूरतः । चिन्तामणिसुचक्रस्थ पार्श्वनाथप्रसादतः ॥ १२ ॥
30 देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा । तयाऽऽच्छादितसर्वाङ्गं मा मां हिनस्तु डाकिनी ॥ ३१ ॥ देवदेव० मा मां हिनस्तु राकिनी ॥ ३३ ॥ देवदेव० मा मां हिनस्तु लाकिनी ॥ ३४ ॥ देवदेव० मा मां हिनस्तु काकिनी ॥ ३५ ॥ 35 देवदेव० मा मां हिनस्तु शाकिनी ॥ ३६ ॥ देवदेव० मा मां हिनस्तु हाकिनी ॥ ३७ ॥ देवदेव० मा मां हिनस्तु याकिनी ॥ ३२ ॥
धर्मघोषसूरि - श्री चिन्तामणिकल्पसार ( जैनस्तोत्रसन्दोह पृष्ठ ३६.) देवदेव० मा मां हिंसन्तु पन्नगाः ॥ ४७ ॥ देवदेव० मा मां हिंसन्तु हस्तिनः ॥ ५३ ॥ देवदेव० मा मां हिंसन्तु राक्षसाः ॥ ७१ ॥ देवदेव० मा मां हिंसन्तु वह्नयः ॥ ६३॥ देवदेव० मा मां हिंसन्तु सिंहकाः ॥ ५१ ॥ देवदेव० मा मां हिंसन्तु दुर्जनाः ॥ ५९ ॥ देवदेव० मा मां हिंसन्तु भूमिपाः ॥ ७५ ॥ - श्रीऋषिमण्डलस्तोत्रम्
+ आ श्लोकमां श्री ऋषिमण्डलयन्त्रनो महिमा दर्शावेल छे ।
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम् श्रीगौतमस्य मुद्राभिलब्धिभि( )निधीश्वरम् ।
त्रैलोक्यवासिनो देवा देव्यो रक्षन्तुं सर्वतः (मामितः) ॥२४॥
अनुवादः-श्री गौतमस्वामी गणधर भगवंतनी मुद्राओ तथा लब्धिओ वडे ज्योतिर्मय अने निधीश्वर थयेला (?) एवा मने त्रणे लोकमां वसता देवो अने देवीओ रक्षो (मारी रक्षा करो) ॥२४॥
5
६५. मुद्राभिः-मुद्राओ वडे ।
श्री सूरिमन्त्रनी नीचे प्रमाणेनी पांच मुद्राओ अतिशय विख्यात होवाथी तेओनो अहीं श्री। गौतमस्वामीनी मुद्रा तरीके निर्देश थयो जणाय छे :
१. सौभाग्य मुद्रा-वश्य तथा क्षोभ माटे । २. सुरभि मुद्रा - शांति माटे । ३. प्रवचन मुद्रा-ज्ञान माटे । ४. परमेष्ठि मुद्रा - सर्वार्थसिद्धि माटे ।
५. अंजलि मुद्रा --- आत्मसेवार्थे । ६६. लब्धिभिः-लब्धिओ वडे। जिनलब्धि, अवधिजिनलब्धि वगेरे अनेक प्रकारनी लब्धिओ छ।
लब्धिधारी महापुरुषोना स्मरणादि माटे शास्त्रोमां उ ही अर्ह णमो जिणाणं, ऊँ ही अर्ह णमो 15 ओहिजिणाणं वगेरे अनेक लब्धिपदो सूचववामां आव्या छ। ए लब्धिपदोना स्मरणथी आत्मानी ज्ञानादि अनेक शक्तिओनो समुचित विकास थाय छे। जुदां जुदां लब्धिपदोनी शास्त्रीय रीते संयोजना करीने - तेमनु स्मरण करवाथी शान्त्यादि अनेक अर्थक्रियाओ थाय छे ।। (लब्धिओनी संख्या तथा नामो माटे जुओ परिशिष्ट २).
६७. भा निधीश्वरम्-(मुद्रा तथा लब्धि वडे करायेल जापना प्रभावथी) ज्योतिर्मय अने 20 सर्वनिधीश्वर बनेला मारी देवो तथा देवीओ रक्षा करो। (निधि तथा देवीओना नाम माटे जुओ अनुक्रमे परिशिष्ट ९ अने परिशिष्ट ५)
६८. त्रैलोक्यवासिनो देवा देव्यः-जुदी जुदी प्रणालिका अनुसार जे जे देवो तथा देवीओर्नु रक्षा माटे आमंत्रण थाय छे तेओनो अहीं नामनिर्देश करवामां आवे छे । ६९. रक्षन्तु सर्वतः (मामितः) तेओ मारी सर्वप्रकारे रक्षा करो।
25 * सरखावो
श्रीगौतमस्य या मुद्रा तस्या या भुवि लब्धयः । ताभिरभ्यधिकं ज्योतिरहन् सर्वनिधीश्वरः ॥७७ ॥ पातालवासिनो देवाः, देवाः भूपीठवासिनः । स्वर्वासिनोऽपि ये देवाः सर्वे रक्षन्तु मामितः ।। ७८ ॥
-श्रीऋषिमण्डलस्तोत्रम् + एतजापात् सूरिौतमलब्धिभाभिरुत्तेजाः। देवासुर-दनुजेन्द्रर्वन्द्योऽथ त्रिभवशिवगामी ॥४७८॥
-श्रीसिंहतिलकसूरिविरचितं 'मन्त्रराजरहस्यम्' ऋ.मं.३
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. ऋषिमण्डलस्तषयन्त्रालेखनम् ऊँ ही श्रीश्च (हीः) धृतिर्लक्ष्मीर्गौरी चण्डी सरस्वती । जयाऽम्बा विजयेत्याद्या विद्याँ यच्छन्तु मे धृतिम् ॥२५॥ भ्रष्टरीज्यादयो यं यमर्थमिच्छन्ति तं नराः। लभन्तेऽस्य स्मृतेयुद्धाद्यापदश्च तरन्त्यमी ॥ २६ ॥ भूर्जपत्रान्तरालिख्य, रक्षा कण्ठ-शिरः-करे ।
मुंगल-ग्रह-भूतार्तिहृद् वश्यादिप्रसाधनी ॥ २७॥
अनुवादः- ही पूर्वक-श्री, ही, धृति, लक्ष्मी, गौरी, चण्डी, सरस्वती, जया, अंबा, विजया--बगेरे विद्याओ (देवीओ) मने धैर्य आपो ॥२५॥
अनुवादः-राज्यथी भ्रष्ट थयेला वगेरे मनुष्यो जे जे अर्थने इच्छे छे तेने आना स्मरणथी प्राप्त 10 करे छे अने तेओ युद्ध वगेरे आपदाओने तरी जाय छे ॥२६॥+
अनुवादः-भोजपत्रमा (आन) आलेखन करीने कंठे, मस्तके अथवा हाथमा (बांधवाथी) रक्षा थाय छे । मोगळा, ग्रह तथा भूतपीडा दूर थाय छे अने वशीकरण वगेरेने सिद्ध करे छे ॥२७॥
७०. विद्या-अहीं जेओनो नामनिर्देश थयो छे ते देवीओ वगेरे। (विद्यादेवीओ माटे जुओ परिशिष्ट ८). 15 ७१. यच्छन्तु मे धृतिम्-आराधनामां मने स्थैर्य तथा धैर्य अर्पो।
७२. भ्रष्टराज्यादयो-अहीं आदि पदथी पदभ्रष्ट अने लक्ष्मीभ्रष्ट तथा भार्यार्थी, सुतार्थी अने वित्तार्थी पण समजवा जोईए । ७३. रक्षा-रक्षा निर्माणना प्रकारो :
१. आलेखन--भूर्जपत्र पर। २. स्थान-कंठमां (मादळियामां) अथवा शिर पर (पाघडीमां, डबीमां) अथवा
हाथे (मादळियाम)। ३. पीडानी शांति माटे--प्रहरचना रिष्ट योगनी शांति माटे तथा भूत-व्यंतर
वगेरेनी बाधाथी मुक्त थवा माटे अने वश्यादि कर्मनां प्रसाधन माटे। ७४. मुद्गल-व्यंतरविशेष--जेओ मुगल साथे परिभ्रमण करे छे। मुद्गलने मंतरीने प्रहारार्थे
कोई फेंके, तो तेना निवारण माटे। सरखावो:-* ॐ ही श्रीः हीः धृतिर्लक्ष्मीः गौरी चण्डी सरस्वती ।
__ जयाऽम्बा विजया नित्या क्लिन्नाऽजिता मदद्रवा ॥८॥
राज्यभ्रष्टा निजं राज्यं पदभ्रष्टाः निजं पदम् । लक्ष्मीभ्रष्टा निजां लक्ष्मी प्रागुवन्ति न संशयः ॥ ८६ ॥ भायार्थी लभते भार्या, सुतार्थी लभते सुतम् । वित्तार्थी लभते वित्तं, नरः स्मरणमात्रतः ॥ ८ ॥ भूर्जपत्रे लिखित्वेदं, गलके मलि वा भुजे। धारितं सर्वथा दिव्यं, सर्वभीतिविनाशकम् ।। ८८॥ भूतैः प्रेतैहैर्यक्षेः, पिशाचैर्मुद्रलैर्मलैः।
वात-पित्त-कफोद्रेकेर्मुच्यते नात्र संशयः॥८९॥ + आ श्लोकमां फलश्रुतिनो निर्देश छ ।
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१२
ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम् त्रैलोक्यवर्तिजैनानां, बिम्बैदृष्टैः स्तुतैर्नतैः । ।
यत् फलं तत् फलं "बीजस्मृतावेतन्महद् रहः ॥ २८ ॥ ® अनुवाद :-त्रणे लोकमां रहेला अरिहंत परमात्माना बिम्बोनां दर्शन करवाथी, तेमनी स्तुति करवाथी अने तेमने नमस्कार करवाथी जे फळ प्राप्त थाय ते फळ आ (हीकार) बीजना रमरणथी प्राप्त थाय छे । आ मोटु रहस्य छे ॥ २८ ॥
७५. बीजस्मृतावेतन्महद् रहः-बीजस्मृतिर्नु रहस्य । बीजना (हीकारना) स्मरणमात्रथी त्रिभुवनवर्ती सर्व जिन बिम्बोनां दर्शन, स्तवन अने वंदन जेटलो लाभ थाय छे । अहीं स्मरणनो अचिंत्य प्रभाव दर्शाववामां आव्यो छे । चक्षुइंद्रिय वडे दर्शन, वाणी वडे स्तवन अने काया वडे नमस्कार ए त्रणे करतां पण बीजना भावपूर्वक स्मरण- फळ अधिक छ । आ निरूपण पण आंशिक छे; मानसिक स्मरणर्नु सर्वोत्कृष्ट फळ तो एना करतां अनेकगणुं अधिक छ। स्मृतिना आ महान फळने जाणवू अने अनुभववू, 10 ए एक आध्यात्मिक मार्गनुं महान रहस्य छ ।
ॐ भूर्भुवः स्वस्त्रयीपीठवर्तिनः शाश्वताः जिनाः।
तैः स्तुतैर्वन्दितैर्दृष्टैर्यत् फलं तत् फलं स्मृतौ ॥ ९० ॥
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२. न्यास
पिण्डस्थ,
10 श्लोक नं.६
श्लोक नं. | पुष्पो नं.
१३-१८
श्लोक नं.२९
ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम् अष्टाचाम्लतपःपूर्व, जिनानभ्यर्च्य सिद्धये ।
अष्टजातीसहस्रेस्तु, जापो होमो दशांशतः ।। २९ ।।*
अनुवाद :- [आनी (हीकारनी)] सिद्धिने माटे आठ आयंबिलनु तप करवापूर्वक आठ हजार जाईना पुष्पो वडे जिनेश्वरनी पूजा करवी ने आठ हजारनो जाप करवो। दशांश होम करवो । 5 अर्थात् आठसो वखत होम करवो ॥ २९॥
७६. अष्टाचाम्ल...दशांशतः-जाप, तप, अर्चा, करण अने अन्तर्याग साधनाना क्रमनी तालिका नीचे प्रमाणे थई शके:१. मंत्र
। ३. ध्यान | ४. साधन न ५. जाप । ६. तप ७. अर्चा | ८.अंतर्याग
मुद्राओ मूलमंत्र न्यास
संख्या
आठ जिनपूजा श्लोक
श्लो. नं. २४ पदस्थ अने ८००० आचाम्ल (स्नात्रपूजा
कषायनं. १०
| जाईना रूपस्थ
(आयंबिल) करीने) चतुष्टयनो (आसन
श्लोक श्लोक
श्लोक ८०००
होम पूर्वक)
नं. २९
नं. २९ नं. २९ (आसन अहीं अध्याहार छे)। आमां सकलीकरणनो समावेश थाय छ । १. मंत्र-आसनपूर्वक मूलमंत्रनी श्लोक नं. ६ मां दर्शाव्या प्रमाणे साधना करवानी छ । २. न्यास-रक्षा माटे सकलीकरण श्लोक नं. १० मां दर्शाव्या प्रमाणे करवानां छे । ३. ध्यान-श्लोक नं. १३ थी १८ मां दर्शाव्या प्रमाणे एक पछी एक ध्यान करवानुं छे । ___आ विशे आम्नाय गुरु पासेथी जाणी लेवो अने ध्यान यंत्रमा आलेखन कर्या प्रमाणे करवानां छे। ४. साधन-मुद्राओ श्लोक नं. २४ ना विवेचनमा आप्या प्रमाणे अने पुष्पो श्लोक नं. २९ मां
जणाव्या प्रमाणे। ५. जाप—एक एक जाईना पुष्पना पूजन वडे जाप करवानो छ। जापनी व्याख्या नीचे प्रमाणे उपलब्ध थाय छे:
भूयो भूयः परे भावे भावना भाव्यते हि या।
जपः सोऽत्र स्वयं नादो मन्त्रात्मा जप्य ईदृशः॥ पुरश्चरणनी संख्या ८०००। ६. तप-आठ आयंबिलना तपपूर्वक आठ दिवसनी प्रक्रिया साधवी । ७. अर्चा-जिनपूजा (स्नात्र सहित) । जाईनां फूल नं. ८०००। ८. अंतर्याग-होम-नाभिमण्डलनी अग्निमां चार कषायोनो ८०० वखत होम करवो ते
अंतर्याग छ । + * सरखावो:-आचाम्लादि तपः कृत्वा, पूजयित्वा जिनावलीम् ।
अष्टसाहस्रिको जापः, कार्यस्तत् सिद्धिहेतवे ॥ ९३ ॥ + श्री सागरचन्द्र तेमना 'मन्त्राधिराजकल्प'मां पूजा माटे षट्कर्म आ प्रमाणे आपे छे:१. आसन, २. सकलीकरण, ३. मुद्रा, ४. पूजा, ५. जप, ६. होमविधि।
आदौ जिनेन्द्रवपुरद्भुतमन्त्रयन्त्रा-हानासनानि सकलीकरणं तु मुद्राम् । पूजां जपं तदनु होमविधिं षडेव कर्माणि संस्तुतिमहं सकलं भणामि ॥२॥
-श्री जैनस्तोत्रसन्दोह पृष्ठ, २३२ ।
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम् अष्टमासान् स्मरेत् प्रात:जमेतच्छताधिकम् (१०८)। स पश्येदार्हतं बिम्ब, सप्तान्तर्भवसिद्धये ॥ ३० ॥ सम्यग्दृशे विनीताय, ब्रह्मवतभृते इदम् । देयं मिथ्यादृशे नैव "जै(जि)नाज्ञाभङ्गदूषणः(णम् ) ॥ ३१ ॥ परमेष्ठिपदानां तु, विशेषः पूर्वयन्त्रतः ।
ज्ञेयो रत्नत्रयस्याथ, विशेषः कश्चिदुच्यते ॥ ३२ ॥
अनुवाद:-जे आठ मास सुधी सवारमा १०८ वार आ बीजनुं स्मरण करे छे तेने अर्हत् बिम्बनां दर्शन थाय छे अने ते तेनी सात भवनी अंदर सिद्धिने माटे थाय छे ॥ ३०॥
अनुवादः--आ सम्यग्दृष्टि, विनीत अने ब्रह्मचर्यव्रतने धारण करनारने आपq । मिथ्यादृष्टिने न ज आपq। तेने आपवाथी श्री जिनेश्वरभगवंतनी आज्ञाना भंगरूप दूषण लागे छे ॥ ३१॥ 10
अनुवादः-पंचपरमेष्ठिपदोनी जे विशेषता छे ते पूर्वयन्त्रथी (परमेष्ठियंत्रथी के जे पूर्वे ग्रन्थकारे रचेल छे तेथी ) जाणवी । रत्नत्रयनी जे विशेषता छे ते हवे कांईक कहेवाय छे ।। ३२॥
७७. अष्टमासान्–दृढीकरण माटे समयनो उल्लेख बाकी रह्यो हतो तेनो निर्देश अहीं थाय छ।
समय----आठ मास । जे क्रिया करी छे तेना दृढीकरण माटे अहीं समयनो निर्णय कह्यो छे। आठ मास सुधी हमेश सवारे १०८ वार होकार बीजनुं भावपूर्वक स्मरण करे तो अर्हद् बिंबन दर्शन थाय 15 छे अने सात भवमां सिद्धि प्राप्त थाय छे।
७८. जै(जि)नाज्ञाभङ्गदूषणः(णम्)-आज्ञानो निर्देश के अने आ आज्ञानु उल्लंघन करे तेने जिनाज्ञा उल्लंघननो दोष लागे छे।
७९. परमेष्ठिपदानां....कश्चिदुच्यते--जाप्य मूलमन्त्रना त्रण खंड थई शके अने ते नीचे प्रमाणे :
१. प्रथम खंड-अष्ट बीजाक्षरो-ॐ ह्रां ही हूँ हूँ है हो हूः ।। २. द्वितीय खंड-परमेष्ठिपदो अथवा ते पदोना आद्याक्षरो-अ सि आ उ सा । ३. तृतीय खंड-ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यो नमः ।
प्रथम खंडना जाप, समय तथा फल विशे श्लोक नं. ३० मां निर्देश थयो । हवे श्लोक नं. ३२ मा पहेला बे पादमा परमेष्ठिपदो विशे ग्रन्थकारे जे रहस्यनो पूर्वे निर्देश कर्यो छे ते अवलोकवाने 25 सूचन कर्यु अने त्रीजा तथा चोथा पादमां तृतीयखंडमां जे रत्नत्रय छे ते विशे रहस्य दर्शाववानो निर्देश कर्यो छे। आ रहस्यने श्लोक नं. ३३-३४-३५ मां जणाववामां आव्युं छे। • सरखावोः-शतमष्टोत्तरं प्रातः ये स्मरन्ति दिने दिने ।
तेषां न व्याधयो देहे, प्रभवन्ति न चापदः ॥ ९४ ।। अष्टमासावधिं यावत् , प्रातः प्रातस्तु यः पठेत् । स्तोत्रमेतन्महातेजो, जिनबिम्बं स पश्यति ॥ ९५ ॥ दृष्टे सत्यस्तो बिम्बे, भवे सप्तमके ध्रुवम् ।
पदमाप्नोति शुद्धात्मा, परमानन्दसंपदाम् ।। ९६ ।। • सरखावोः एतद् गोप्यं महास्तोत्रं, न देयं यस्य कस्यचित् ।
मिथ्यात्ववासिने दत्ते, बालहत्या पदे पदे ।। ९२॥
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम् ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपांसीति स्मरन् मुनिः । शतमष्टोत्तरं लब्ध्वा(द्धा), चतुर्थतपसः फलम् ।। ३३ ।। कृत्वा पापसहस्राणि, हत्वा जन्तुशतानि च । अमुं मन्त्रं समाराध्य, "तिर्यञ्चोऽपि दिवं गताः ॥ ३४ ॥ पतद् व्यसनपाताले, भ्रमत् संसारसागरे । अनेनैव जगत् सर्वमुद्धृत्य विधृतं शिवे ॥ ३५ ॥ मूर्ध्नि रत्नत्रयं विभ्रज्जिनबीजं नमोऽक्षरम् ।
इति रत्नत्रयं ध्येयं, जिनबीजस्य बीजकम् ॥ ३६॥
अनुवादः-ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूपी तपने १०८ वार स्मरण करतो मुनि उपवासना फळने 10 प्राप्त करनारो थाय छे ॥३३॥
अनुवादः-पूर्वे हजारो पापो कर्या छतां अने सेंकडो जीवोनी हिंसा कर्या छतां पण (पछीना जीवनमा) आ मंत्र- आराधन करवाथी पशुओ पण स्वर्गगामी बन्यां छे ॥ ३४ ॥+
अनुवादः-व्यसनरूप पाताळमां पडतुं अने संसारसागरमा भमतुं एवं जगत आ मंत्र वडे ज उद्धरीने शिवा धारण करायुं छे ॥ ३५॥ 15 अनुवादः--मस्तक पर रत्नत्रयस्वरूप रेफने धारण करतुं अने नमो अक्षरवाळं जिनबीज (अर्ह) (अर्थात् 'ॐ ही अर्ह नमः' ) रत्नत्रय तरीके ध्येय छ। ते (रत्नत्रय) जिनबीजनुं पण बीज छे ॥३६॥
८०. ज्ञान-दर्शन-चारित्र तपांसि
(उ) ज्ञान-दर्शन-चारित्रेभ्यो (नमः)-आ प्रमाणे जाप्य मूलमन्त्रना त्रीजा खंडन जे मुनि १०८ वार स्मरण करे छे ते उपवासना फळने प्राप्त करे छे। अहीं ज्ञान, दर्शन, चारित्र त्रिरत्नरूपी 20 तप छे।
८१. मुनिः-मुनि एटले जगतना तत्त्वोनुं मनन करनार । अथवा मुनि एटले मौन(संयमाने धारण करनार ।
८२. तिर्यञ्चः-जो तिर्यंचो पण आ मंत्रनी आराधनायी स्वर्गने पाम्या, तो बुद्धिमान मनुष्य एनाथी शुं न पामी शके ?
८३. अनेनैव....शिवे-आ मंत्रनी साधना ए महान धर्म छ। धर्मनुं लक्षण करतां पण शास्त्रकारोए कहुं छे के 'जे दुर्गतिमांथी जीवनी रक्षा करे अने तेने मोक्षमां धारण करे, ते धर्म कहेवाय ।
८४. रत्नत्रयं....बीजकम्-अहीं ऊँ ह्री अर्ह नमः नो ध्येय तरीके निर्देश करवामां आव्यो छे; कारण के, रत्नत्रय ए जिनबीजनुं पण बीजक छे । आत्मा जिन (परमात्मा) बनावनार रत्नत्रय होवाथी,
तेने जिनबीजनुं पण बीज कहेवामां आवे छे। रत्नत्रयनी मुख्यता आ प्रमाणे नाना मंत्रपदमां दर्शावीने 30 समग्र यंत्रस्तवना सार तरीके तेने कहेवामां आव्यु छ।
+ आ श्लोक 'योगशास्त्र'ना अष्टम प्रकाशमां श्लोक नं. ३७ तरीके मळे छे। मूलमंत्रना त्रीजा खंडनी फलश्रुति आ श्लोकमां तथा आ पछीना श्लोकमां आपवाम आवी छ। * मन्यते यो जगत्तत्त्वं स मुनिः परिकीर्तितः ।
-श्री ज्ञानसार अष्टक, मौनाष्टक. 8 जुओ, उपा. श्री यशोविजयजी कृत 'धर्मपरीक्षा'।
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ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम् नोंध:
श्री सिंहतिलकसूरिए रजू करेल आम्नायने मुख्यत्वे लक्ष्यमा राखी संस्था तरफथी ऋषिमंडलयन्त्र चार रंगमा अलग मुद्रित करवामां आव्युं छे अने तेनी एक एक नकल आ ग्रंथनी साथे आपवामां आवी छ । ते यन्त्रमा नीचे प्रणालिका अनुसार गणधरो, लब्धिओ, देवीओ, यक्षो, यक्षिणीओ आदिनां नाम लखेल छे ते अहीं परिशिष्ट रूपे छाप्यां छे । आमांथी जेनो जेनो प्रस्तुत कृतिमा उल्लेख आवे छे तेनो त्यां 5 त्यां निर्देश कर्यो छे।
परिशिष्ट १ अगियार गणधरो ५. सुधर्मा ६. मण्डितपुत्र ७. मौर्यपुत्र ८. अकम्पित
१. इन्द्रभूति २. अग्निभूति ३. वायुभूति ४. व्यक्त
९. अचलभ्राता १०. मेतार्य ११. प्रभास
___ 10
15
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१. जिन २. अवधिजिन ३. परमावधिजिन ४. सर्वावधिजिन ५. अनन्तावधिजिन ६. कुष्ठबुद्धि ७. बीजबुद्धि ८. पदानुसार ९. आशीविष १०. दृष्टिविष ११. संभिन्नश्रोतः १२. स्वयंसंबुद्ध १३. प्रत्येकबुद्ध १४. बोधिबुद्ध १५. ऋजुमति १६. विपुलमति
परिशिष्ट २ अडताळीस लब्धिओ १७. दशपूर्वि १८. चतुर्दशपूर्वि १९. अष्टाङ्गनिमित्तकुशल २०. विकुर्वणर्द्धिप्राप्त २१. विद्याधर २२. चारणलब्धि २३. प्रश्न(प्रज्ञ)श्रमण २४. आकाशगामि २५. क्षीराश्रवि २६. सर्पिराश्रवि २७. मध्वाश्रवि २८. अमृताश्रवि २९. सिद्धायतन ३०. भगवन्महामहावीर
वर्धमानबुद्धर्षि ३१. उग्रतपः ३२. अक्षीणमहानसि
३३. वर्धमान ३४. दीप्ततपः ३५. तप्ततपः ३६. महातपः ३७. घोरतपः ३८. घोरगुण ३९. घोरपराक्रम ४०. घोरगुणब्रह्मचारि ४१. आमीषधिप्राप्त ४२. खेलौषधिप्राप्त ४३. जल्लौषधिप्राप्त ४४. विगुडौषधिप्राप्त ४५. सर्वोषधिप्राप्त ४६. मनोबलि ४७. वचनबलि ४८. कायबलि
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१७. सूर
ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्
परिशिष्ट ३ चोवीश तीर्थङ्करोना पिताओ
९. सुग्रीव १०. दृढरथ ११. विष्णु १२. वसुपूज्य १३. कृतवर्म १४. सिंहसेन १५. भानु १६. विश्वसेन
१. नाभि २. जितशत्रु ३. जितारि ४. संवर ५. मेघरथ ६. श्रीधर ७. सुप्रतिष्ठ ८. महासेन
5
१८. सुदर्शन १९. कुम्भ २०. सुमित्र २१. विजय २२. समुद्रविजय २३. अश्वसेन २४. सिद्धार्थ
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१. मरुदेवा २. विजया ३. सेना ४. सिद्धार्था ५. सुमङ्गला ६. सुसीमा ७. पृथ्वी ८. लक्ष्मणा
परिशिष्ट ४ चोवीश तीर्थङ्करोनी माताओ
९. रामा १०. नन्दा ११. विष्णु १२. जया १३. श्यामा १४. सुयशा १५. सुव्रता १६. अचिरा
१७. श्री १८. देवी १९. प्रभावती २० पद्मा २१. वप्रा २२. शिवा २३. वामा २४. त्रिशला
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.
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२. श्री ३. धृति ४. लक्ष्मी ५. गौरी ६. चण्डी ७. सरस्वती ८. जया
परिशिष्ट ५ चोवीश देवीओ ९. अम्बा १०. विजया ११. नित्या १२. क्लिन्ना १३. अजिता १४. मदद्रवा १५. कामाङ्गा १६. कामबाणा
१७. सानन्दा १८. नन्दमालिनी १९. माया २०. मायाविनी २१. रौदी २२. कला २३. काली २४. कलिप्रिया
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१. गोमुख २. महायक्ष ३. त्रिमुख ४. यक्षनायक ५. तुम्बर ६. कुसुम ७. मातङ्ग ८. विजय
१७. गन्धर्व १८. यक्षराज १९. कुबेर २०. वरुण २१. भृकुटि २२. गोमेध २३. पार्श्व २४. ब्रह्मशान्ति
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१. चक्रेश्वरी २. अजितबला ३. दुरितारि ४. काली ५. महाकाली ६. श्यामा ७. शान्ता ८. भृकुटी
ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्
परिशिष्ट ६ चोवीश यक्षो ९. अजित १०. ब्रह्म ११. मनुज १२. कुमार १३. षण्मुख १४. पाताल १५. किन्नर १६. गरुड
परिशिष्ट ७ चोवीश यक्षिणीओ ९. सुतारिका १०. अशोका ११. मानवी १२. चण्डा १३. विदिता १४. अकुशा १५. कन्दर्पा १६. निर्वाणी
परिशिष्ट ८ सोळ विद्यादेवीओ ७. काली ८. महाकाली ९. गौरी १०. गान्धारी ११. सर्वास्त्रमहाज्वाला १२. मानवी
परिशिष्ट ९
नव निधि ४. सर्वरत्न ५. महापद्म ६. काल
१७. बला १८. धारिणी १९. धरणप्रिया २०. नरदत्ता २१. गान्धारी २२. अम्बिका १३. पद्मावती १४. सिद्धायिका
१. रोहिणी २. प्रज्ञप्ति ३. वज्रशृङ्खला ४. वज्राङ्कशी ५. चक्रेश्वरी ६. पुरुषदत्ता
१३. वैरोटया १४. अच्छुप्ता १५. मानसी १६. महामानसी
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१. नैसर्पिक २. पाण्डुक
३. पिङ्गल ऋ. मं.४
७. महाकाल ८. माणवक ९. शङ्ख
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१. सौधर्म २. ईशान ३. सनत्कुमार ४. महेन्द्र ५. ब्रह्म ६. लान्तक ७. महाशुक्र ८. सहस्रार ९. प्राणत १०. अच्युत ११. चमर
१२. बलि 15 १३. धरण
१४. भूतानन्द १५. हरिकान्त १६. हरिषह १७. वेणुदेव १८. वेणुदारि १९. अग्निशिख २०. अग्निमाणव २१. वेलम्ब २२. प्रभञ्जन
ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्
परिशिष्ट १०
चोसठ सुरेन्द्रो २३. घोष २४. महाघोष २५. जलकान्त २६. जलप्रभ २७. पूर्ण २८. अवशिष्ट २९. अमितगति ३०. अमितवाहन ३१. किन्नर ३२. किम्पुरुष ३३. सत्पुरुष ३४. महापुरुष ३५. अतिकाय ३६. महाकाय ३७. गीतरति ३८. गीतयश ३९. पूर्णभद्र ४०. माणिभद्र ४१. भीम ४२. महाभीम ४३. सुरूप ४४. प्रतिरूप
४५. काल ४६. महाकाल ४७. सन्निहित ४८. सामान ४९. धातृ ५०. विधातृ ५१. ऋषि ५२. ऋषिपाल ५३. ईश्वर ५४. महेश्वर ५५. सुवस्त्र ५६. विशाल ५७. हास्य ५८. हास्यरति ५९. श्वेत ६०. महाश्वेत ६१. पतङ्ग ६२. पतङ्गपति ६३. चन्द्र ६४. सूर्य
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परिशिष्ट ११ आठ सिद्धिओ
१. लधिमा २. वशिता ३. ईशिता
४. प्राकाम्य ५. महिमा ६. अणिमा
७. यत्रकामावसायित्व ८. प्राप्ति
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ऋषिमण्डलस्य यन्त्रलेखनविधिः *
तीर्थमण्डलं कृत्वा कूटाक्षराणि ककारादिहकारान्तानि लेख्यानि तदुपरि वृत्तिं कृत्वा | तदुपरि ५६ वकारा लेख्याः समुद्रमध्ये ५६ अंतर्द्वपाः एते ततो वृत्तं तदुपरि अष्टदलं कृत्वा -
पूर्वदले ॐ ह्रीं अर्हद्द्भ्यो नमः । इन्द्रो रविः । आग्नेयदले ॐ हाँ सिद्धेभ्यो नमः | अग्निश्चन्द्रः । दक्षिणदले ॐ हूँ आचार्येभ्यो नमः । यमो मंगलः । नैर्ऋतदले ॐ हूँ उपाध्यायेभ्यो नमः । नैर्ऋतो बुधः । वरुणदले ॐ हूँ साधुभ्यो नमः । वरुणो बृहस्पतिः । वायव्यदले ॐ हूँ ज्ञानेभ्यो नमः । वायुः शुक्रः । उत्तरदले ॐ हूँ। दर्शनेभ्यो नमः । धनदः शनिः ।
ईशानदले ॐ हुः चारित्रेभ्यो नमः । ईशानो राहुः केतुः ।
अष्टदलं एवं लिख्यते उपरि कलसं कृत्वा मुखस्थाने ॐ ब्रह्मणे नमः पडघ्यां नव निधयः स्थाप्याः ।
अधः ॐ पातालाय नमः उपरि चतु (र) स्त्रं कृत्वा कोणे लकाराः ४ लेख्याः दिक्षु | | क्षिकाराः लेख्याः ।
-अधो दक्षिणे गौतममूर्त्तिः ।
वामे स्वगुरुमूर्त्तिः उपरि पद्मा वैरोट्या ।
ॐ हूँ। श्रीः धृतिलक्ष्मी मागौरीचण्डीसरस्वतीत्याद्याः पूर्वोक्ता देव्यो लेख्याः भवनपति - | व्यंतर- ज्योतिष्कैन्द्र-वैमानिक - सिद्धपितृमातृव्ययक्षयक्षिणीविद्यादेव्याः १६ लेख्याः । इति श्रीऋषिमण्डलस्य यन्त्रलेखनविधिः संपूर्णः । श्रीसूरतबिंदरे सं. १८५१ लि. विनयचन्द्रेण ॥
॥ श्रीः ॥ श्रीः ॥ श्रीः ॥ श्रीः ॥ श्रीः ॥ श्रीः ॥
** अमदावादना संवेगीना जैन उपाश्रय ( हाजा पटेलनी पोळ ) ना ज्ञानभंडारमांनी प्रत नं. ६६७ (पत्र-३ ) परथी आ ऋषिमंडलयन्त्र - लेखन विधि उतारी छे. आ विधि ट्रंकी होवा छतां प्रस्तुत विषयने उपयोगी छे.
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शब्दसूचि
क्र
ऋषिमण्डलस्तवः १(१)
औं (ॐ) ७(७), १८(२५)
अक्षरः ३(३), ६(६), २२(३६) 8 अक्षि ८(१०) अग्निः ७(८) अधः ७(८,९) अन्तरद्वीपभूमिः ३(३) अन्तस्थः १०(१२) अम्बा १८(२५) अम्बुजम् ११(१४) अभ्रम् ५(५), १२(१६) अर्हत् ४(४), ७(७), ११(१३,१५), १३
(१९), १४(२०), १५(२१), २१(३०) अर्हत्-सिद्धाद्यभिधापञ्चकम् ४(४) अलक्ष्यवपुः १५(२२) अष्टकाष्ठा ४(४) अष्टजातीसहस्राणि (पुष्पाणि) २०(२९) अष्टमन्त्रपदम् ८(१०) अष्टमासाः २१(३०) अष्टाचाम्लतपः २०(२९) असितम् १२(१६)
आ आचाम्लतपः २०(२९) आचार्यः १५(२१) आत्मा ११(१५) आदावंशे ५(५) आनन्दः (परः) ११(१५) आर्हतं बिम्बम् २१(३०)
कर्णिका ११(१४) कण्ठः १८(२७) करः १८(२७) कर्पूरादि २(२) कला १२(१६,१८); १३(१९) कुबेरः ७(८) कूटः ८(११) क्षाराब्धिवलयम् ३(३) क्षाराम्बुधिः ११(१४)
ग-घ गौतमस्वामी १७(२४) गौरी १८(२५) ग्रहः ७(९), १८(२७) ग्रहाष्टकम् ७(९) घण्टिका (घण्टी) ८(१०)
चण्डी १८(२५) चतुर्थतपसः फलम् २२(३३) चतुर्युगम् १२(१८) चन्द्रः ७(९) चन्द्रकला ५(५), १२(१६), १४(२०) चन्द्रप्रभः १२(१७), १५(२१) चन्द्राभः ११(१५), १२(१७)
इन्द्रः ७(८) ईशानः ७(८) 'ई' स्वरः १२(१६)
उज्ज्वलः ६(६) उपाध्यायः १४(२०), १५(२१), ऊर्ध्वम् १०(१२)
जम्बूद्वीपः ४(४), ११(१४) जया १८(२५) जापः २०(२९) जिनः १०(१२), १२(१७, १८);
१५(२१,२२); २०(२९)
* कौंसनी बहार लखेल अंक प्रस्तुत पुस्तकना पृष्ठनो अने कौंसनी अंदर लखेल अंक तेना श्लोकनो निर्देश करे छ।
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शब्दसूचि जिनबीजम् २२(३६)
पादान्तः ८(१०) जिनरूपः (हीकारः) १५(२२)
पार्थिवीधारणा ११(१३, १५) जैनाज्ञाभङ्गदूषणः २१(३१)
पार्श्वनाथः १२(१८), १५(२१) ज्ञान-दर्शन-चारित्रम् ४(४), ६(६), २२(३३)
पिण्डस्थम् ११(१३) पीतः ८(११), १२(१६)
पीतवलयम् ८(११) तपः २०(२९), २२(३३)
पूर्वयन्त्रतः २१(३२) तिर्यगलोकसमः ११(१४) त्रिकोण: (सिद्धः) १४(२०) त्रिपुरुषमूर्तिः १५(२२)
फणी ५(५) त्रिरेखा १०(१२)
बहिः ३(३), १०(१२) दिक् ७(७,९); ११(१४)
बिन्दुः १३(१९) दिवम् २२ (३४)
बिम्बम् १९(२८), २१(३०), दीर्घकला १४(२०)
बीजम् ७(७), १५(२२), १९(२८), २१(३०), देवाः १७(२४)
२२(३६) देव्यः १७(२४)
बीजयुगम् ७(७) बीजस्मृतिः १९(२८)
बीजाष्टकः ६(६) धर्मचक्रम् १६(२३)
बुधः ७(९) धृतिः १८(२५)
ब्रह्मव्रतभृत् २१(३१) ध्येयः ११(१५), १५(२२), २२(३६)
भार्गवः ७(९) नादः १२(१६, १७), १३(१९)
भूतः १८(२७) नाभिः (नाभ्यन्तः) ८(१०)
भूर्जदलम् २(२) नासिका ८(१०)
भूर्जपत्रम् १८(२७) निधीश्वरः १७(२४)
भ्रष्टराज्यादयः १८(२६) निरक्षरम् ८(११) नेमिनाथः १२(१७), १५(२२) नैर्ऋतिः ७(८)
मङ्गलम् ७(९) मध्ये ४(४), ७(७), ८(११)
मन्त्रः ६(६), ८(१०), ११(१३), २२(३४) पञ्चपरमेष्ठिमयः (हीकारः) १३(१९)
मन्त्रपदम् ८(१०) पटात्मदेहः २(२)
मन्त्रयुक्तितः ११(१३) पदम् ६(६), ७(७), ८(१०)
मल्लिनाथः १२(१८), १५(२१) पदस्थम् ११(१३)
मस्तकम् ८(१०) पदाष्टकम् ६(६), ७ (७)
मिथ्यादृक् २१(३१) पद्मप्रभस्वामी (पद्माभ) १५(२१)
मुखम् ८(१०) परमेष्ठिपदाः २१(३२)
मुद्गलः १८(२७) परमेष्ठयक्षराः ६(६) .
मुद्रा १७(२४)
न
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३०
मुनिः २२ (३३) मुनिसुव्रतस्वामी १२ (१७), १५ (२२)
य
यन्त्रम् १ (१), ११(१३), २१ (३२) यमः ७ (८)
र
रक्ता (कला) १२(१६)
रक्षा २(२), ८(१०), १८ (२७) रत्नत्रयः २१ (३२), २२ (३६) रविः ७(९)
रहः १९ ( २८ ) राहुः ७ (९)
रेफः १२(१६, १८)
लक्ष्मीः १८ (२५) लब्धिः १७ (२४) लाग्रतः ३(३)
विद्या १८ (२५)
विनीतः २१ (३१) विबुधचन्द्रसूरि : १ (१) वियत् १२ (१६) वृत्तकला १४ (२०)
वर्णः ५ (५) वर्द्धमानः १ (१) वरुणः ७ (८) वलयम् ८ (११)
वश्यादिप्रसाधनी १८ (२७) वाक्पतिः ७ (९) वायुः ७(८)
वारुणमण्डलम् १० (१२)
वासुपूज्यः १२ (१८), १५ (२१)
विजया १८ (२५)
शक्तिः १५ (२२) शनिः ७ (९) शम्भुर्वर्ण: ५ (५)
ल
व
श
शब्दसूचि
शशिः १५ (२१) शिखा ८ (१०)
शिरः १२ (१६, १८); १८ (२७) शिवः- शिवमयः १५ (२२), २२ (३५) शीर्षकम् १४ (२०) शून्यम् १२ (१७) श्रीः १८ (२५)
सदिक्पत्रम् ११ (१४) सम्यग्दृश् २१ (३१) सरस्वती १८ (२५) सर्वधर्मबीजम् १५ (२२)
साधुः १३ (१९), १४ (२०), १५ (२२) सान्तः १० (१२), १२ (१६), १३ (१९) सिद्ध: ४(४), ७(७), १३ (१९), १४ (२०), १५ (२१)
सिद्धिः २०(२९), २१(३०) सिंहासनः १० ( १२ ), ११ (१५) सुधांशुभम् ८ (११) सुमेरुः ८ ( ११ ) सुवर्णलेखिनी २ (२) सुविधिनाथः १२ (१७), १५ (२१) सूरि : १३ (१९), १४ (२०) सौवर्ण-रूप्य कांस्य - पटः २ (२) स्मरेत् २१ (३०) स्वर्णाद्रिः ११(१४)
स्वरः ५(५), १०(१२), १२ (१६,१७), १३
(१९)
स्वरभृत् ५(५)
स
हः १२(१६) होम ः २० (२९)
७ (७)
ही : १८ (२५)
ह
१० (१२), १८ (२५) हृीकारः (पञ्चपरमेष्ठिमयः) १३(१९) कारः (जिनरूपः ) १५ (२२)
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शुद्धिपत्रक
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध १६ ७ तेथी
२६ एतेषां १७ २०-२२ ज्योतिर्मय...परिशिष्ट ५
, २४ (उमेरो) १८ ३३ ॥८८॥
, ३५ ॥८९॥ १९ फू. नो. ॥९० ॥ २२ २ (द्धा)
लब्धिओ १५ पूर्वि
तेना एतेषां (तासां) ज्योतिपुंजना स्वामी-अत्यंत दीप्तिमान (१)। (देवीओना नामो माटे जुओ परिशिष्ट ५) ॥८९॥
॥ ९१॥ (ब्धा ) लब्धिपदो पूर्वी
or
२४
कुष्ठबुद्धि चारणलब्धि प्रश्न (प्रज्ञ) श्रमण गामि चारि क्षीराश्रवि सर्पिराश्रवि मध्वाश्रवि अमृताश्रवि मनोबलि वचनबलि कायबलि °महानसि
कोष्ठबुद्धि चारणलब्धिधर प्रश्नश्रमण गामी °चारी क्षीरावी सर्पिराश्रवी मध्वाश्रवी अमृताश्रवी मनोबली वचनबली कायबली °महानसी
२६
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जैन साहित्य विकास मंडळनां
प्रकाशनो
[प्रयोजक : शेठ श्री. अमृतलाल कालिदास दोशी, बी. ए.]
५.०० ५.००
__०.३७
१. श्री प्रतिक्रमण-सूत्र प्रबोधटीका, भाग पहेलो [बीजी आवृत्ति २. श्री प्रतिक्रमण-सूत्र प्रबोधटीका, भाग बीजो ३. श्री प्रतिक्रमण-सूत्र प्रबोधटीका, भाग त्रीजो ४. श्री प्रतिक्रमणनी पवित्रता [बीजी आवृत्ति-अप्राप्य] ५. श्री पंचप्रतिक्रमण-सूत्र [प्रबोधटीकानुसारी] शब्दार्थ, अर्थ-संकलना तथा
सूत्र-परिचय साथे [अप्राप्य] ६. श्री पंचप्रतिक्रमण-सूत्र हिंदी [प्रबोधटीकानुसारी] शब्दार्थ, अर्थ-संकलना
तथा सूत्र-परिचय साथे [अप्राप्य] ७. सचित्र सार्थ सामायिक-चैत्यवंदन [प्रबोधटीकानुसारी-अप्राप्य] ८. योगप्रदीप [प्राचीन गुजराती बालावबोध अने अर्वाचीन गुजराती अनुवाद सहित] ९. ध्यानविचार [गुजराती अनुवाद साथे] १०. नमस्कार स्वाध्याय [प्राकृत विभाग] [गुजराती अनुवाद साथे] ११. तत्त्वानुशासन [गुजराती अनुवाद साथे]
ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखन [गुजराती अनुवाद तथा यन्त्र साथे]
ť si e le
रू. २.०० रू. . ०.५०
१.५०
रू. २०.०० रू. १.००
छपाय छे:
नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृत विभाग
नमस्कार स्वाध्याय [अपभ्रंश-हिंदी-गुजराती विभाग] १५. जिनाभिषेकविधि १६. मातृकाप्रकरण १७. सिद्धमातृकाधर्मप्रकरण १८. मन्त्रराजरहस्य १९. A Comparative Study of the Jaina Theories of Reality and Knowledge.
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