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________________ अग्रवचन मेळवी लेवानी वृत्ति ज्यारथी जन्मी अने केटलेक अंशे तेनो दुरुपयोग पण शरु थयो त्यारे मन्त्रोने गोपवी देवानी प्रथा अस्तित्वमा आवी। यन्त्र-मन्त्र साहित्यमां जैनोनो फाळो यन्त्र, मन्त्रने यथावत् सिद्ध करनार अनेक महान आचायों अने प्रखर आराधको जैन समाजमां थई गया छ । आवा ज्ञानी गुरुओए ज आ विज्ञान- ज्ञान वहेतुं राख्यु छ। मन्त्रना प्रभावथी पोते अनुभवेल अनेक अद्भुत क्षणो, निहाळेल दिव्य सृष्टिओ अने भव्य प्रसंगोनु वर्णन करतुं केटलंय साहित्य रचायेल छ। मन्त्रने जेम स्तोत्रमा गोपवी देवामां आवता तेम आवा साहित्यने पण खूब काळजीपूर्वक छूपावी राखवामां आवतुं; अने तेथी ज आजे प्रकट साहित्य करतां अप्रकट साहित्य विशेष प्रमाणमां छे । यन्त्र-मन्त्रविषयक प्रकट थयेल अनेक वेदिक ग्रन्थो जोतां एवी शंका स्वाभाविक थाय के जैनोमां आ प्रकार- साहित्य अल्प प्रमाणमां हशे; परंतु तुलनात्मक अभ्यास करनार संशोधकना मनमा आवी शंका लांबो समय टकशे नहीं। एटलं आपणे अवश्य स्वीकार जोईए के जैनवाङ्मयनो यन्त्र-मन्त्र विभाग हजु यथायोग्य रीते व्यवस्थित थयो नथी। जो तेनुं चीवटपूर्वक ऊंडु संशोधन करी व्यवस्थित प्रकाशन करवामां आवे तो आ विषयमा प्रवेश करनारने तेनी अद्भुतता अने दिव्यतानो ख्याल आव्या वगर रहे नहीं। आचार्य श्रीसिंहतिलकसूरि अने तत्कालीन परिस्थिति छेल्ले छेल्ले जे समर्थ मान्त्रिको थया तेमां प्रस्तुत कृतिना रचयिता आचार्य श्रीसिंहतिलकसूरि अगत्यनुं स्थान भोगवे छे। यन्त्र-मन्त्र साहित्यमा तेमणे आपेल फाळो खूब ज नोंधपात्र छ। तेमना समग्र मन्त्रविषयक साहित्यर्नु विहंगावलोकन करतां तुरत समजाय छे के आ विषयना तेओ एकनिष्ठ उपासक हता एटलं ज नहीं पण समर्थ निष्णात हता। 'मन्त्रराजरहस्य' नामनो तेमनो महान ग्रन्थ अति गंभीर अने मननीय छे। ते ग्रन्थमा तेमणे तेमना समस्त मन्त्रविषयक ज्ञाननो निचोड आपी दीधो छ। तेमनी हयातीनो समय चौदमी शताब्दिनो पूर्वार्ध छे। ए समयमा मन्त्र-तन्त्र-वाद सजीव हतो। जो के केटलाक विशिष्ट मन्त्रो वगेरेनुं ज्ञान-साहित्य लुप्त थई गयुं हतुं तेम छतां वर्तमान समय करतां घणुं वधारे अने व्यवस्थित मन्त्रसाहित्य ए समयमा अस्तित्व धरावतुं तुं। योग्य आत्माओने गुरुगम दुर्लभ न हता। मन्त्रादि शक्तिनो दुरुपयोग ठीक ठीक प्रमाणमा चालु हतो अने ते ज मन्त्रसाहित्यनी विस्मृति माटे प्रधान कारण बन्यु।। आचार्यश्रीना समयमां भिन्न भिन्न विशिष्ट आम्नायोनी अनेक परंपराओ चालु हो। आवी अनेकविध परंपराओ जोई आराधक विभ्रममां पडी जाय एवी परिस्थिति हशे; कारण के तेवे वखते शुं साचुं अने शुं खोटुं तेनो निर्णय करवो अति कठिन बनी जाय छे। अहीं एक हकीकत नोंधवी जोईए के चाली आवती जुदी जुदी प्रत्येक परंपरा वत्ता-ओछा प्रमाणमां कार्यक्षम होय छे, फक्त तेमां अल्पज्ञ लेखको आदिथी जे काई भळतुं लखाई गयं । कांई अनुचित-अनुपयोगी मिश्रित थई गयुं होय तेने दूर करी शुद्धिकरण करवानुं रहे छे। आचार्य श्रीसिंहतिलकसूरिए आ कार्य खूब सफळतापूर्वक पार पाड्युं छे ए बाबत तेमना ग्रन्थोनुं अवलोकन करतां तुरत समजाय छे। तेमनी समन्वयदृष्टि तेमना प्रत्येक ग्रन्थमा अछती रहेती नथी। श्रीऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखन ऋषिमण्डलयन्त्र अति प्राचीन छे, तेनो पाठ पण युगोथी प्रचलित छे अने ग्रन्थकारना समयमां पण तेम ज हतुं । आ यन्त्रना प्रभावने अति उत्कृष्ट रीते प्रतिपादित करतुं 'बृहद् ऋषिमण्डलस्तोत्र' पण तेमना समयमां मोजूद हतुं तो पछी अहीं प्रकट करेल स्तवनी रचना श्रीसिंहतिलकसरिने शा माटे करवी पडी ? उपर जणाब्यु तेम प्रस्तुत रचनानो हेतु पण अन्य ग्रन्थोनी जेम समन्वय साधवानो छे। ते जमानामा प्रवर्ती रहेल अनेक प्रणालिकाओमांथी सत्य तारवीने तेने पुनःप्रस्थापित करवानुं दृष्टिबिन्दु ग्रन्थकार समक्ष हशे। जो के स्तोत्रपाठ, यन्त्र-आलेखन अने पूजन एम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001509
Book TitleRushimandalsavyantralekhanam
Original Sutra AuthorSinhtilaksuri
AuthorTattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Occult
File Size4 MB
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