Book Title: Rushimandalsavyantralekhanam
Author(s): Sinhtilaksuri, Tattvanandvijay
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 8
________________ अग्रवचन थवा माटे अमुक गुणो केळवी भूमिका बांधवी जरूरी छे। श्रद्धा, निष्ठा, गुरुपारतंत्र्य, अप्रमत्तता, विधिज्ञता, सदाचार, नियमपालन, द्रव्य-क्षेत्र-काळ अने भावनी समज तथा शुद्धि, उच्चारस्पष्टता आदि गुणोनी प्राप्ति कर्या पछी ज यन्त्र-आराधना माटे अधिकारी बनी शकाय छे। परवाना विना परदेश तरफ प्रयाण करनार गुन्हेगार गणाय छे, तेम योग्यता केळन्या विना आ विषयमा प्रवेश करनार हानिकर्ता थाय छे । शक्ति अने सिद्धि योग्य गुणो केळवीने अधिकारी बनेलो आराधक ज्यारे यन्त्र, मन्त्र अने तन्ना विषयमा प्रवेश करे छे त्यारे ते अदृष्ट, अकल्प्य अने अपूर्व सृष्टिनो निवासी बने छे। जो के काळनी विषमताने कारणे आ विषयना जाणकारो दुर्लभ थया छे अने तेथी केटलीक अतन्त्रता प्रवर्ते छे; परंतु तेथी यन्त्रविज्ञाननी महत्ता घटती नथी। मन्त्रमा अनन्य शक्ति अंतर्गत छ। मन्त्र द्वारा प्राणशक्ति जागृत थाय छे अने आराधक अभूतपूर्व आनंदनो अनुभव करे छे। आ मन्त्रशक्ति त्वे बे विचारधारा जोवा मळे छे । केटलाक मन्त्रो स्वयं एवु सामथ्ये धरावे छे के तेनुं अभीष्ट कार्य ते पोते ज सिद्ध करे छे; तेमां कोईपण देवताए माध्यम बनवानी आवश्यकता रहेती नथी । ज्यारे केटलाक मन्त्रो देवता द्वारा कार्यसिद्धि करे छे अने तेमा मुख्यत्वे अधिष्ठाता देव प्रति मनने केन्द्रित करवानुं होय छे। कोईपण मन्त्रने स्वाधीन करवा माटे पाठ, जाप अने ध्याननी योग्य समज मेळवी लेवी जरूरी छ। ___ व्याकरणसाहित्यनी जेम मन्त्रसाहित्यमा केटलाक मन्त्रो रूढ अने अनादिसिद्ध छ; ज्यारे केटलाक मन्त्रो संयोजित थई शके छे। अर्थात् अमुक मन्त्रो शाश्वत छ; अने ते सिवायना घणाखरा मन्त्रो काळ अने क्षेत्रनी मर्यादाथी बद्ध छ । जेमके 'ॐ ही अर्ह', 'पञ्चपरमेष्ठिमहामन्त्र' आदि शाश्वत मन्त्रो छे; ज्यारे गुरुनाममन्त्र वगेरे काळथी मर्यादित, अल्पजीवी अने अल्पफळदायी मन्त्रो छ। मन्त्रनी जेम यन्त्रनी बाबतमां पण ए वात लक्ष्यमा राखवानी होय छे। यन्त्र सवीर्य होय तो ज यथावत् फळनी प्राप्ति करावे छे। मन्त्रनी जेम यन्त्रना पण रेखात्मक शून्यात्मक, अक्षरात्मक, चित्रात्मक आदि प्रकारो छे। आवां यन्त्रो गमे तेम, गमे ते पदार्थ पर अने गमे त्यारे करवाथी फळदायी बनतां नथी। आकृति, माप, द्रव्य आदि बाबतोर्नु ज्ञान प्राप्त करी योग्य समये विधिपूर्वक करेलु यन्त्र अभीप्सित सिद्धि अर्पवाने समर्थ बने छ। ग्रन्थज्ञान अने गुरुगमज्ञान यन्त्र, मन्त्र अने तन्त्रनुं ज्ञान मात्र पुस्तकोने आधारे प्राप्त करी अमल करवामां स्वहित जोखमावानो संभव रहे छ। मन्त्र-तन्त्रनी आराधना जवाबदारी विना करवामां आवे त्यारे घणीवार विपरीत परिणामो निपजावे छे। पथ्यपालन करवाने बदले रसौषधि- सेवन करवाथी जेम ते फूटी नीकळे छे तेम मन्त्रसाधनामां पण बने छ । मन्त्रना अधिनायक देवना स्वभावने ओळखीने तेनी अनुकूळता जाळववी आवश्यक छे; अन्यथा ते देव प्रसन्न थवाने बदले प्रकुपित थाय छे अने हानि पहोंचाडे छे। आ ज कारणे साधारण मानवो माटे के मात्र पुस्तकियुं ज्ञान धरावता आराधको माटे उग्र देवोनी साधना करवानी मना करवामां आवी छ। ट्रॅकमां, यन्त्र-मन्त्रनी आराधनामां मात्र ग्रन्थज्ञान उपयोगी नीवडतुं नथी। आ विषयमां गुरु द्वारा प्राप्त थयेल ज्ञान ज सौथी विशेष पथ्य नीवडे छ। आर्यावर्तनी परिणयन क्रियामा जेम अणवरनी जरूर पडे छे तेम मन्त्रसाधनानी क्रियामा प्रवेशक-आराधकने उत्तरआराधकनी अनिवार्य जरूर पडे छ। मन्त्रसिद्ध थयेल आराधक पासेथी मेळवेल मन्त्रज्ञान सद्यः फळदायी बने छ। गुरु विना साचुं ज्ञान मळतुं नथी। साचुं ज्ञान ज तिमिरमां ज्योतीरूप बने छे, प्रगतिनो पंथ खुल्लो करे छे अने मुक्तिपदनी प्राप्ति करावे छे। योग्य गुरुनी प्राप्ति अने तेवा गुरु प्रत्येनो पूज्यभाव, विवेक अने विनम्रता केळववार्नु आवश्यक छ एटलुंज नहीं पण अनिवार्य छ। आ ज कारणे मन्त्रसिद्ध गुरु पासेथी ज्ञान मेळववाने बदले अन्य रीते मन्त्रो १ सवीर्य = चैतन्यमय, सामर्थ्यवाकुं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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