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सारांश दर्शन
'कारनी बीजा प्रकारनी व्यवस्थामां पांच उपयोगी अवयवमां पंचपरमेष्ठिनी स्थिति (अधिष्ठान ) नं सूचन छे । (श्लोक नं. १९ )
१४
आ प्रमाणे ब्यवस्था होवा छतां थोडा फेरफार साथ पंचपरमेष्ठिनुं 'हाँ' कारमां अधिष्ठान थाय छे तेनी प्रणालिका विच्छेद न थाय ते माटे अहीं तेना विचिन्तननी नोंध छे । (श्लोक नं. २० )
(४) रूपस्थ ध्यान - श्लोक नं. २१-२२
उपरना श्लोक नं. १६-१७-१८ मां जे प्रमाणे 'हाँ' कारना अवयवोमां चोवीस तीर्थकरोनुं अधिष्ठान छे ते प्रमाणे रूपस्थ ध्यान माटे तल्लीन थवानुं छे । अहीं पदनी अथवा 'ही' कारना अवयवनी मुख्यता नथी पण वाच्यना संवेदननी अथवा वैद्यच्छायनी । मुख्यता छे ।
(५) रूपस्थ ध्याननुं परिणाम - वेद्यच्छायनी मुख्यतावाळी भूमिका - श्लोक नं. २३
आ यन्त्र जैन धर्मचक्र छे । तेना प्रभावथी ध्याता सुरक्षित रहे छे । योगिनीओ अने हिंसक पशुओ निःप्रभ थयेला होवाथी कांई हेरान करी शकतां नथी ।
रूपस्थ ध्यानना कारणे ध्यातानी वृत्ति क्षीण थई होय छे । ते लीनप्रायः होय छे ।
अहीं ध्याता ‘हाँ’कार-स्थित बिंबोनी रूपरेखाना संवेदनावाळो ज होय छे । आथी तेणे वेद्यच्छायना गर्भमां - ज्ञेय पदार्थ अविस्पष्ट होय छतां अवभासमान थाय तेना केन्द्रमां - प्रवेश कर्यो छे । आवी रीते ध्यानमां प्रवेश करनारने कोई हैरान करी शकतुं नथी । अहीं ध्याता 'सुषुप्ति' अवस्थामां होय छे ।
४. तात्पर्य - श्लोक नं. २४ थी नं. २८:
(१) समस्त देव तथा देवीओ तरफथी रक्षा - श्लोक नं. २४
अहीं महान लब्धिधारी गणधर भगवंत श्री गौतमस्वामीनी विख्यात मुद्राओ तथा लब्धिपदोनो आश्रय लेवानो छे । सत्यसंकल्प महर्षिओए जे उच्च भूमिका उपरथी मंत्र सिद्ध कर्या होय तेओनी सिद्धिओनुं विधिपूर्वक स्मरण करवाथी अने योग्य मुद्राओ धारण करवाथी त्रणे लोकना देवो तथा देवीओ तरफथी रक्षा मळे छे ।
(२) धृतिगुणनी याचना - श्लोक नं. २५
मन्त्रयोगनी साधनामां धैर्यनी खास आवश्यकता छे तेथी दश ऋद्धि देवीओ अथवा विद्यानी अधिष्ठात्री देवीओ पासे अहीं धृतिनी मागणी करवामां आवी छे ।
(३) फलादेश - श्लोक नं. २६
राज्यथी भ्रष्ट थयेला वगेरेने राज्यादिनी प्राप्ति करावनारी अने आपत्तिओमांथी बच्चावनारी आ एक महान
साधना छे ।
(४) यन्त्ररचना - भूर्जपत्र उपर- रक्षा माटे — श्लोक नं. २७
उपर जे यन्त्रन्यावर्णन थयुं ( यन्त्रनं विस्तारथी वर्णन थयुं) ते धातुपट उपर पूजा माटे करेल यन्त्र विषे हतुं । हवे भूर्जपत्र उपर रक्षा माटे करेला आलेखनना प्रभावनो निर्देश थाय छे ।
+ वेद्य एटले ध्येय अथवा वाच्य ।
छाया एटले आत्मगत प्रतिबिंबनी बोधक अवस्था । वेद्यच्छाय दशामां केवळ मनमात्रनो संसर्ग होय छे ।
आ प्रसंगे ध्यातानी सुषुप्ति अवस्था होय छे । आ एवी अवस्था छे के जेमां ध्याता-ध्यान करनार, ध्येय-ध्यान करवा योग्य, अने ध्यान ए त्रणे जेने एकताने प्राप्त थयेल छे एटले ध्यानावस्थामा स्वस्वरूपने पामेल छे, जेतुं अन्य स्थळे चित्त नथी एवा ध्यानीने कोई स्पर्शतुं नथी- कोई हेरान करी शकतुं नथी ।
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